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सामान्य प्रवृत्तियों को मुख्य तथा देशभेद को गौण मानते हैं। इसीलिए वे अन्तर्वेद (गंगा-जगुना के बीच का देश), ब्रज, दक्षिणी, पंजाब, टक्क (टांक, दक्षिण-पश्चिमी पंजाब), भादानक (राजपूताना), मरुभूमि, अवंती, पारियात्र (बेतवा और चम्बल का निकास), दशपुर (मंदसौर) और सौराष्ट्र सर्वत्र अपभ्रंश को ही मुख्य भाषा मानते हैं।
अतः पुरानी हिन्दी से तात्पर्य परवर्ती अपभ्रंश के उस रूप से है, जो अपनी प्रवृत्तियों के आधार पर सार्वदेशिक हो चली थी, भले ही प्रादेशिकता के प्रभाव से उसमें भेदोपभेद दिखाई देते हों। पुरानी गुजराती, पुरानी राजस्थानी, पुरानी पश्चिमी राजस्थानी आदि नाम वस्तुतः वर्तमान भेदों को केवल पुराना कह दिये गये हैं। इन सबके स्थान पर 'पुरानी हिन्दी' नाम ही अधिक उपयुक्त है, क्योंकि सार्वदेशिकता के लक्षण जो उस समय की भाषा में दिखाई देते हैं। - आगे चलकर विविध जैन साहित्य के साथ ही चन्दरबरदाई के पृथ्वीराज रासो, विद्यापति की कीर्तिलता, मीरा के पद तथा तुलसीदास के रामचरितमानस में विकास करते हैं।
संक्रान्तिकालीन भाषा में अपनी पूर्ववर्ती भाषा के रूपों को मिलाकर लिखने की परम्परा रही है, साथ ही प्रादेशिक बोलियों को भी यथास्थान प्रयुक्त होते देखा जाता है। अतः प्रादेशिकता के प्रभाव से दूर हटकर सामान्य प्रवृत्तियों के आधार पर पुरानी हिन्दी को तत्कालीन सार्वदेशिक भाषा मानना होगा, जिस प्रकार नानक से लेकर दक्षिण के हरिदासों तक की कविता 'बजभाषा' कहलाती है। प) प्राकृत अपभ्रंश और हिन्दी : अन्तः सम्बन्ध
___ संस्कृत सहित ये सभी भाषायें परस्पर एक-दूसरे से इस प्रकार सम्बद्ध हैं, जैसे कि गंगा, यमुना और सरस्वती नदियों का संगम स्थल है। वस्तुतः साहित्यिक प्राकृतों में अपभ्रंश भाषा अंतिम कड़ी है। इसे भारतीय आर्य भाषा के मध्ययुग के अन्तिम युग की भाषा माना गया है।
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