Book Title: Prakrit Bhasha Vimarsh
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: B L Institute of Indology

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Page 146
________________ जं जं समयं जीवो आविसइ जेण जेण भावेण । सो तंमि-तंमि समए, सुहासुहं बंधए कम्मं ॥५७॥ - जिस समय जीव जैसे भाव करता है, वह उस समय वैसे ही शुभ-अशुभ कर्मों का बंध करता है। धम्मो वत्थुसहावो, खमादिभावो य दसविहो धम्मो । रयणत्तयं च धम्मो, जीवाणं रक्खणं धम्मो ॥८३॥ - वस्तु का स्वभाव धर्म है। क्षमा आदि अर्थात् क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य – इन भावों की अपेक्षा से वह दस प्रकार का है। रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र) धर्म है। तथा जीवों की रक्षा करना धर्म है। खम्मामि सव्वजीवाणं, सब्वे जीवा खमंतु मे । मित्ती मे सव्वेभूदेसु, वेरं मज्झं ण केण वि ॥८६॥ - मैं सब जीवों को क्षमा करता हूँ। सब जीव मुझे क्षमा करें। मेरा सब प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव है। मेरा किसी से भी वैर नहीं है। अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य । अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पट्ठिय सुप्पट्टिओ ॥१२३॥ आत्मा ही सुख-दुःख का कर्ता है और विकर्ता (भोक्ता) है। सत्प्रवृत्ति में स्थित आत्मा ही अपना मित्र है और दुष्प्रवृत्ति में स्थित आत्मा ही अपना शत्रु है। जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुज्जए जिणे । एगं जिणेज्ज अप्पाणं, एस से परमो जओ ॥१२५॥ __- जो दुर्जेय संग्राम में हजारों-हजार योद्धाओं को जीतता है, उसकी अपेक्षा जो एक अपने आप को जीत लेता है, उसकी विजय ही परम (उत्कृष्ट) विजय है। १३३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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