Book Title: Prakrit Bhasha Vimarsh
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: B L Institute of Indology

View full book text
Previous | Next

Page 145
________________ - - जब तक जरा पीड़ित न करे, व्याधि न बढ़े और इन्द्रियाँ क्षीण न हों, तक तक धर्म का आचरण कर ले। राइणिएसु विणयं पउंजे । ८/४० - बड़ों का सम्मान करो। धम्मस्स विणओ मूलं । ९/२/२ - धर्म का मूल विनय है। निच्चं चित्तसमाहिओ हवेज्जा । १०/१ - सदा प्रसन्न (आत्म-लीन) रहो। अत्तसमे मन्नेज्ज छप्पि काए । १०/५ - संबको आत्म-तुल्य मानो। न य वुग्गहियं कहं कहेज्जा । १०/१० - कलह को बढ़ाने वाली चर्चा मत करो। संपिक्खई अप्पगमप्पएणं । चूलिका २/१२ - आत्मा से आत्मा को देखो। सव्वभूय पभूयस्स सम्मं भूयाइ पासओ। पिहियासवस्स दंतस्स पावं कम्मं न बंधई ॥४/९॥ - जो सब जीवों को आत्मवत् मानता है, जो सब जीवों को सम्यक्-दृष्टि से देखता है, जो आस्रव का निरोध कर चुका है और जो दान्त है, उसके पाप-कर्म का बन्धन नहीं होता। ख) समणसुत्तं से - सुट्ठवि मग्गिज्जंतो, कत्थ वि केलीइ नत्थि जह सारो । इंदिअविसएसु तहा, नत्थि सुहं सुट्ठ वि गविह्र ।।४७॥ - बहुत खोजने पर भी जैसे केले के पेड़ में कोई सार दिखाई नहीं देता, वैसे ही इन्द्रिय-विषयों में भी कोई सुख दिखाई नहीं देता। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160