Book Title: Prakrit Bhasha Vimarsh
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: B L Institute of Indology

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Page 148
________________ पाइयकव्वम्मि रसो जो जायइ तह य छेयभणिएहिं । उययस्स य वासियसीलस्स तित्तिं न वच्चामो ॥ २९३ ॥ - • प्राकृत-काव्य, विदग्ध - भणिति (द्वयर्थक व्यंग्योक्ति) तथा सुवासित शीतल जल से जो आनन्द उत्पन्न होता है, उससे हमें पूर्णतया तृप्ति नहीं होती है। दिट्ठे वि हु होइ सुहं जइ वि न पावंति अंगसंगाई । दूरट्ठिओ वि चंदो सुणिव्वुइं कुणइ कुमुयाणं ॥७८॥ प्रेमी यद्यपि अंगों का स्पर्श नहीं पाते हैं तथापि देख कर भी उन्हें सुख मिल जाता है। चन्द्रमा सुदूर स्थिर होने पर भी कुमुद - कानन को आह्लादित कर देता है। — सीलं वरं कुलाओ दालिद्दं भव्वयं च रोगाओ । विज्जा रज्जाउ वरं खमा वरं सुट्ठ वि तवाओ ||८६ ॥ - • कुल से शील श्रेष्ठ हैं, रोग से दारिद्रय श्रेष्ठ है, विद्या राज्य से श्रेष्ठ है और क्षमां बड़े तप से भी श्रेष्ठ है। जं जि खमेइ समत्थो धणवंतो जं न गव्वमुव्वहइ । जं च सविज्जो नमिरो तिसु अलंकिया पुहबी ॥८७॥ - जो 'मुनष्य' समर्थ होने पर भी क्षमा करता है, धनवान् होने पर भी गर्व नहीं करता और जो विद्वान् होने पर भी विनम्र रहता है - इन तीनों से पृथ्वी अलंकृत होती है। सिग्धं आरुह कज्जं पारद्धं मा कहं पि सिढिले । पारद्धसिढिलियाई कज्जाइ पुणो न सिज्झति ॥ ९२ ॥ - कार्य का आरम्भ शीघ्र करो, प्रारब्ध (अर्थात् प्रारम्भ किए हुए) कार्य में किसी भी प्रकार की शिथिलता मत करो । प्रारम्भ किए हुए कार्यों में शिथिलता आ जाने पर वे पुनः पूर्ण नहीं होते। Jain Education International १३५ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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