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अनेक प्राचीन और अर्वाचीन प्रमुख भारतीय भाषाओं की जननी होने का भी गौरव प्राप्त हैं; किन्तु इसकी हर स्तर पर उपेक्षा के कारण इसके अस्तित्व पर भी संकट के काले बादल मंडरा रहे हैं। यह प्रसन्नता की बात है कि प्राचीन भारतीय संस्कृति और संस्कारों की आत्मा के रूप में प्रतिष्ठित संस्कृत-भाषा को सरकारी तथा अन्य स्तरों पर प्रोत्साहन मिलना शुभ संकेत है; किन्तु इसी की सहोदरा प्राकृत-भाषा की उपेक्षा पर चिन्तित होना भी स्वाभाविक है।
आश्चर्य तो तब होता है जब विद्वान् संस्कृत-भाषा को सभी भाषाओं की जननी मानते हुए प्राकृत-भाषा को भी संस्कृत-भाषा से उत्पन्न कह देते हैं। इस मिथ्या मान्यता के पीछे कुछ प्राकृत वैयाकरणों के सही सूत्रों की गलत व्याख्या कर लेना तो है ही, साथ ही कुछ लोगों को इस भाषा साहित्य और उसकी परम्परा के वैभव के प्रति पूर्वाग्रह भी एक कारण है। पूर्वोक्त मिथ्या मान्यता और धारणा को न तो भाषावैज्ञानिक स्वीकार करते हैं और न ही यह अन्य प्रमाणों से सिद्ध होती है।
इसे सभी एकमत से स्वीकार करते हैं कि संस्कृत-भाषा के विशाल और समृद्ध शब्द-भण्डार से देशी-विदेशी अनेक भाषायें समृद्ध अवश्य हुई हैं, पर संस्कृत-भाषा से न तो प्राकृत-भाषा उत्पन्न हुई है और न अन्य भाषायें। विकास की दृष्टि से तो दोनों भाषायें सहोदरा मानी जा सकती हैं; किन्तु एक दूसरे को, एक दूसरे की जननी नहीं कहा जा सकता है।
'अनेक प्रतिष्ठित विद्वानों ने प्राचीन आर्यभाषा ‘छान्दस' से प्राकृत का विकास माना है। साथ ही लौकिक संस्कृत अर्थात् देवभाषा संस्कृत का विकास भी इसी छान्दस् से माना है। अतः प्राकृत एवं संस्कृत - इन दोनों का स्रोत एक ही होने से ये सहोदरा भाषायें हैं। वेदों की भाषा प्रयत्न-साध्य अथवा एकलयबद्ध, एक रूप तथा एक छन्दबद्ध होने से इसे 'छान्दस' भाषा इस नाम से अभिहित किया गया।
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