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सव्वे जीवा वि इच्छन्ति जीविडं न मरिज्जिउं ।
तम्हा. पाणवहं घोरं निग्गंथा वज्जयंति णं ।। दशवै० ६ / १० ।।
- सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना नहीं। इसलिए प्राण-वध को भयानक जानकर निर्ग्रन्थ उसका वर्जन (त्याग) करते हैं।
जाए सद्धाए निक्खतो परियायद्वाणमुत्तमं ।
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तमेव अणुपालेज्जा गुणे आयरियसम्मए । दशवै० ८ / ६० ।। हे मुने ! जिस श्रद्धा से उत्तम प्रव्रज्या - स्थान के लिए घर से निकला, उस श्रद्धा को (जीवन पर्यन्त) पूर्ववत् बनाए रखे और आचार्यसम्मत गुणों का अनुपालन करे ।
जे लक्खणं च सुविणं च अंगविज्जं च जे पउंजंति । न हु ते समणा वुच्चंति, एव आयरिएहिं अक्खायं ॥
उत्तराध्ययन ८/१३
जो साधु लक्षणशास्त्र, स्वप्नशास्त्र और अंगविद्या का प्रयोग करते हैं, उन्हें श्रमण नहीं कहा जाता, ऐसा आचार्यों ने कहा है ।
चत्तारि परमंगाणि, दुल्लहाणीह जंतुणो ।
माणुसतं सुई सद्धा, संजमम्मि य वीरियं । । उत्तराध्ययन ३ / १ ॥
इस जगत में प्राणी को (मोक्षप्राप्ति के) चार परम अंगों ( उत्कृष्ट वस्तुओं) की प्राप्ति दुर्लभ है। वे चार ये हैं १. मनुष्यत्व अर्थात् मनुष्य जन्म की प्राप्ति, २. श्रुत-शास्त्र- श्रवण, ३. श्रद्धा और ४. संयममार्ग में पुरुषार्थ ।
जं अन्नाणी कम्मं, खेवइ बहुआहिं वासकोडिहिं । तं नाणी तिहिं गुत्तो, खवेद उसासमित्तेण ॥
अज्ञानी जिन कर्मों को बहुत करोड़ों वर्षों से खपाता है, उन
इन तीन गुप्तियों से एक
कर्मों को ज्ञानी जीव मन-वचन-काय
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उच्छ्वास मात्र समय में खपाता (क्षय कर लेता है।
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