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को नया जीवन प्रदान कर सदैव विकसित करती चलती है। छान्दस की भाषा ने तत्कालीन देशी-भाषा से शक्ति अर्जित करके संस्कृत का रूप ग्रहण किया। अवसर आने पर प्राकृत को भी अपनी आन्तरिक रूढ़ि दूर करने के लिए लोक-भाषा की सहायता लेनी पड़ी। फलतः भारतीय आर्य भाषा की अपभ्रंश अवस्था उत्पन्न हुई, जिसने आगे चलकर सिन्धी, गुजराती, राजस्थानी, पंजाबी, ब्रज, अवधी आदि आधुनिक देशी भाषाओं को जन्म दिया।
विकास के इस क्रम में ऐसी अवस्था आती है जब आरम्भिक देशी भाषा शिष्टों की साहित्यिक भाषा बन जाती है और वैयाकरण लोग उसका नियम लिखते समय शिष्टों के प्रयोग को सामने रखते हैं। जिस अपभ्रंश को महाकवि स्वयंभू ने 'गामिल्लभास' कहा था, उसे ११वीं शताब्दी के वैयाकरण पुरुषोत्तम ने शिष्टों के प्रयोग से जानने की सलाह दी थी। (अपभ्रंश भाषा और व्याकरण, पृ. ३६)
जैसे साधारण वेशभूषा वाली स्त्रियाँ जिस प्रकार अपने गृहकार्यों को बड़ी खूबी से निबटाती हैं, जबकि उस प्रकार नख से शिखा तक अलंकृत-मर्यादित महिलाएं नहीं निबटा पातीं; इसी प्रकार अलंकृत प्राकृत-भाषा भी जनोपयोगी कार्यों के लिए कारगर सिद्ध न होने से शनैः-शनैः व्यावहारिकता से तटस्थ होती चली गई। फलतः, उसकी जगह कार्य-व्यवहार के क्षेत्र में अपभ्रंश भाषा ने जन्म लिया। जब अपभ्रंश भाषा भी क्रम-क्रम से सौष्ठव-बुद्धि और साहित्यिक संस्कारों से उद्भासित होकर शास्त्रीय भाषा बन गई, तब व्यवहार के लिए उसी अपभ्रंश के आधार पर प्रादेशिक भाषाओं की उत्पत्ति हुई, ऐसा प्रायः सभी भाषा तत्त्ववेत्ता जानते और मानते हैं।
इस प्रकार लोकभाषा की परम्परा के रूप में आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं को अपनी परम्परागत श्रृंखला से जोड़ने वाली भाषा का नाम अपभ्रंश है।
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