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जिस समय प्राकृत और अपभ्रंश शास्त्रीय भाषा बनीं, उसी समय हेमचन्द्राचार्य (सन् ११५० ई.) ने प्राकृत के व्याकरण और कोश की रचना की। इसीलिए उन्होंने इन दोनों रचनाओं के अन्त में अपभ्रंश के नियम और संस्कार भी संग्रहीत किये हैं। वस्तुतः अपभ्रंश का साहित्यिक ढाँचा प्राकृतों का होने से भाषा और साहित्य रूपों पर प्राकृतों का अत्यधिक प्रभाव है। उसमें प्राकृतों की प्रायः सभी विशेषतायें प्राप्त हैं। परन्तु मुख्य रूप से यह शौरसेनी के अनुसार विकसित हुई हैं। (प्रायः शौरसेनीवत् कार्यं भवति – हेम ४/४४६)। . ङ) अपभ्रंश भाषा के भेद
सामान्यतया अपभ्रंश के पूर्वी और पश्चिमी – ये दो भेद किए गये हैं। विद्वान् पूर्वी अपभ्रंश को मागधी से तथा पश्चिमी अपभ्रंश को शौरसेनी और महाराष्ट्री से जोड़ते हैं।
मार्कण्डेय ने प्राकृत सर्वस्व नामक अपने प्राकृत व्याकरण ग्रन्थ में अपभ्रंश के सत्ताईस भेद गिनाए हैं- बाचड, लाटी, वैदर्भी, उपनागर, नागर, बार्बर, आवंति, पंचाली, टाक्क, मालवी, कैकयी, गौड़ी, कौन्तेली, औड्री, पाश्चात्या, पाण्ड्या, कौन्तली, सैंहली, कलिंगी, प्राच्या, कार्णाटी, कांची, द्राविड़ी, गौर्जरी, आभीरी, मध्यदेशिया एवं वैतालिका।
भाषा-वैज्ञानिकों ने प्राकृत के सन्दर्भ में अपभ्रंश के जो भेद किए हैं, वे इस प्रकार हैं - १. शौरसेनी अपभ्रंश, २. मागधी अपभ्रंश, ३. अर्धमागधी अपभ्रंश, ४. महाराष्ट्री अपभ्रंश, ५. पैशाची अपभ्रंश। कुछ विद्वान् जिन भेदों को अधिक उपयुक्त मानते हैं वे हैं - १. नागर अपभ्रंश, २. ब्राचड अपभ्रंश, ३. उपनागर अपभ्रंश।
इसमें नागर अपभ्रंश का क्षेत्र गुजरात, ब्राचड अपभ्रंश का क्षेत्र सिन्ध प्रान्त की बोली और उपनागर अपभ्रंश का क्षेत्र पश्चिमी राजस्थान, पंजाब माना जाता है।
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