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संलाप की तरह मनोहर हो। महापुराण में भी अवहंस शब्द है। महाकवि स्वयंभू ने भी 'अवहत्थ' शब्द का प्रयोग किया है। 'अवहट्ट' शब्द अपभ्रंश का ही परवर्ती रूप प्रतीत होता है न कि अलग भाषा का रूप। मैथिल कवि विद्यापति भी कीर्तिलता में कहते हैं – “देसिल बअना सब जन मिट्ठा, तं तैसन जंपओ अवहट्ठा।" ग) भाषा विकास की सामान्य प्रक्रिया है : अपभ्रंश
इस प्रकार यह अपभ्रंश विभिन्न क्षेत्रीय या भौगोलिक कारणों से अनेक नामों से अभिहित की गई है। वस्तुतः प्राकृत के बाद अपभ्रंश भाषा का प्रचलन भाषा-विकास की एक सामान्य प्रक्रिया है। वर्ण विकार एवं लोप की जिन प्रवृत्तियों के आधार पर प्राकृत भाषाओं का विकास हुआ है, वे अपभ्रंश में अपनी चरमसीमा पर पहुंच गयी क्योंकि . अपभ्रंश भाषा में कोमलता अधिक है। ____डॉ. देवेन्द्र कुमार शास्त्री ने अपभ्रंश भाषा साहित्य की शोध-प्रवृत्तियाँ नामक अपनी पुस्तक (पृ. ३९) में लिखा है कि यद्यपि बहुत पहले प्राकृत को भी अपभ्रंश कहा जाता था, क्योंकि संस्कृत को छोड़कर जितनी भी भाषायें थी, वे सब अपभ्रंश कहलाती थीं। किन्तु प्राकृत भाषा के साहित्यिक स्थान पर आरूढ़ हो जाने पर मल बोली को प्राकृत तथा साहित्य की भाषा को भी मूल बोली से सम्बद्ध होने के कारण प्राकृत कहा गया। प्राकृत की इस परम्परा में ही, जब प्राकृतें लोकबोलियों से हटने लगी तब जिस विकसित अवस्था का स्वरूप देखने को मिला, उसे अपभ्रंश नाम दिया गया। भाषा विकास की यह वह अवस्था थी, जिसमें भारतीय आर्यभाषा अपनी संयोगावस्था से वियोगावस्था में संक्रमित होने लगी थी। घ) भाषा-विकास के मूल में देशी भाषायें और अपभ्रंश
वस्तुतः प्रत्येक युग में साहित्य-रूढ़ भाषा के समानान्तर कोई न कोई देशी अवश्य रही है और यही देशी भाषा उस साहित्यिक भाषा
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