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छ) अपभ्रंश साहित्य की समृद्धि में सभी परम्पराओं का योग
विविधताओं से युक्त अपभ्रंश साहित्य चरितकाव्य, प्रबन्धकाव्य, खण्डकाव्य, रासो काव्य आदि रूपों में बहुत विशाल है। डॉ. राजमणि शर्मा ने अपभ्रंश भाषा और साहित्य नामक पुस्तक में लिखा है - अपभ्रंश साहित्य में केवल जैन ही नहीं अपितु सामान्य की संवेदना के संवाहक नाथ सिद्ध और योगी तथा साधक भी हैं जिन्होंने अपने वचनों से, अपनी वाणी से अपेक्षित हिन्दू जाति के एक बड़े वर्ग को स्वावलम्बी बनाया। उनमें जीवन जीने की ललक तथा संघर्ष की अटूट क्षमता भरी।
अपभ्रंश की यह विशेषता है कि बौद्ध सिद्धों, शैवों आदि अनेक परम्परा के विद्वानों ने भी अपभ्रंश में रचनायें लिखकर इस भाषा और साहित्य की श्रीवृद्धि में अपना योगदान दिया है। बौद्ध वज्रयान की एक शाखा सहजयान के सिद्धचौरासी के रूप में प्रसिद्ध साधकों में सरहपा एवं कण्हपा के दोहा-कोष तथा गीत अपभ्रंश भाषा में उपलब्ध होते हैं।
इसी तरह कश्मीर शैव सम्प्रदाय की कुछ कृतियाँ अपभ्रंश में प्राप्त होती हैं। इनमें से अभिनव गुप्त (१०१४ ई.) का तन्त्रसार, भट्ट वामदेव महेश्वराचार्य (११वीं शती) के जन्ममरण विचार में एक दोहा-छन्द, शीतिकण्ठाचार्य कृत 'महानयप्रकाश' में अपभ्रंश के ९४ छंद हैं। इतना ही नहीं कालिदास के विक्रमोर्वशीयम्, आनन्दवर्धन के ध्वन्यालोक, भोजकृत सरस्वतीकण्ठाभरण एवं श्रृंगारप्रकाश, रुद्रट के काव्यालंकार आदि में भी अपभ्रंश के छन्द मिलते हैं।
___ अब्दुर्रहमान कृत संदेशरासक, विद्यापति कृत कीर्तिलता, चन्दबरदाई कृत पृथ्वीराज रासो आदि अनेक ग्रन्थ परवर्ती अपभ्रंश के अच्छे उदाहरण हैं। इस प्रकार प्राकृत भाषा की तरह अपभ्रंश भाषा एवं साहित्य के विकास में भी मात्र जैनों का ही नहीं अपितु अन्य अनेक परम्पराओं के विद्वानों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। .
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