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ख) नाटकों और जैन सिद्धान्त ग्रन्थों की शौरसेनी
नाटकों की शौरसेनी में जैन सिद्धान्त ग्रन्थों की शौरसेनी की अपेक्षा कुछ अधिक भिन्नता है । उसमें त का द, क का ग, य श्रुति और प्रथमा एकवचन में ओ मिलते हैं । इसके कृ धातु के कुव्वदि, करेदि, कुदि, कुणई, कुणदि तथा क्त्वा के समतुल्य य, च्चा, इय, त्तु, दूण, ऊण आदि प्रत्यय पाये जाते हैं। शौरसेनी में न का ण हो जाता है । 'य' के स्थान पर य एवं ज्ज दोनों का प्रयोग होता है।
ग) शौरसेनी की भाषागत प्रमुख विशेषतायें
आचार्य हेमचन्द्र ने अपने प्राकृत व्याकरण में शौरसेनी प्राकृत की अनेक व्याकरणगत विशेषताओं का उल्लेख किया है। वस्तुतः शौरसेनी मध्यदेश की भाषा होने के कारण यह संस्कृत से भी काफी प्रभावित रही है, इसीलिए इसकी प्रकृति भी संस्कृत मानी जाती है । फिर भी प्राचीन प्राकृत होने के कारण इसमें देशी शब्दों का बाहुल्य एवं वैकल्पिक प्रयोग भी मिलते हैं।
१.
३.
शौरसेनी की कतिपय भाषागत विशेषतायें इस प्रकार हैं
क) अनादि में विद्यमान त् का द् और थ् का ध् होता है। ख) किन्तु संयुक्त होने से तू को द् नहीं होता।
ग) साथ ही आदि में रहने पर भी त् का द् नहीं होता। जैसे क) आगतः > आगदो, ख) नाथः > णाधो, णाहो, कथम् > कधं, कहं, ग) आर्यपुत्रः > अज्जउत्तो, घ)
तस्य > तस्स, तथा > तथा ।
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'र्य' के स्थान पर विकल्प में 'य्य' आदेश होता है और विकल्पाभाव में 'ज्जं' आदेश होता है। जैसे - आर्यपुत्रः > अय्यउत्तो, अज्जउत्तो, पर्याकुलः पय्याउलो, पज्जाउलो ।
'क्ष' के स्थान पर 'क्ख' होता है। जैसे
इक्षुः > इक्खु ।
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चक्षु चक्खु,
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