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ख) महाराष्ट्री प्राकृत में रचित साहित्य -
सभी प्रकार की प्राकृत भाषाओं की अपेक्षा महाराष्ट्री प्राकृत में विविध प्रकार का और प्रायः सभी विषयों का सर्वाधिक साहित्य प्राप्त होता है। इसका कारण यह है कि महाराष्ट्री प्राकृत सामान्य कहलाती है। यह सरस, सुबोध एवं सरल भी है। इसीलिए इसमें गद्य एवं पद्य दोनों विधाओं शताधिक में चरित काव्य एवं कथा काव्य आदि उपलब्ध हैं। महाकवि वाक्पतिराज ने (गउडवहो ९२) कहा भी है -
णवमत्थ - दंसणं संनिवेस सिसिराओ बन्ध-रिद्धीओ। अविरलमिणमो आभुवण-बन्धमिह णवर पययम्मि॥
अर्थात् – सृष्टि के प्रारम्भ से लेकर आज तक प्रचुर परिमाण में नूतन-नूतन अर्थों का दर्शन तथा सुन्दर रचनावली प्रबन्ध-सम्पत्ति यदि कहीं भी है, तो केवल प्राकृत में है। इसीलिए महाराष्ट्री-प्राकृत में विविध विषयों के चरित एवं कथा-ग्रन्थों का विपुल रूप में प्रणयन किया गया है। इसका संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत है - ग) प्राकृत काव्य साहित्य - १. शास्त्रीय महाकाव्य - महाकवि प्रवरसेन (पांचवीं शताब्दी) कृत सेतुबन्ध, वाक्पतिराज (ई. सन् ७६०) कृत गउडवहो, आचार्य हेमचन्द्र (बारहवीं सदी) कृत व्याश्रय महाकाव्य, महाकवि कोऊहल ९वीं शती) द्वारा रचित लीलावई कहा, कवि कृष्णलीला शुक एवं दुर्गादास (१३वीं शती) द्वारा रचित सिरिचिंधकव्व (श्रीचिह्नकाव्य) अपरनाम गोविन्दाभिषेक तथा महाकवि श्रीकण्ठ (अठारहवीं सदी) द्वारा रचित सोरि (शौरि) चरित आदि प्रमुख महाकाव्य मुख्यत: महाराष्ट्री प्राकृत में रचित हैं।
२. खण्डकाव्य - रामपाणिवाद (जन्म ई. सन् १७०७) कृत कंसवहो, उषानिरुद्ध तथा अज्ञातकर्तृक भृङ्गसंदेश जैसे खण्डकाव्य . महाराष्ट्री प्राकृत भाषा में उपलब्ध हैं। ३. चरित काव्य - आचार्य विमलसूरि (दूसरी शती) विरचित
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