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- इस प्रकार निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि जैसे आज समाज में राष्ट्रभाषा हिन्दी एक प्रामाणिक भाषा है, किन्तु सम्पूर्ण भारत
और सम्पूर्ण समाज में हिन्दी का ही प्रयोग नहीं होता, अपितु क्षेत्रीय एवं ग्रामीण भाषाओं (बोलियों) का भी प्रयोग साथ-साथ होता है। ठीक इसी प्रकार संस्कृत प्रामाणिक, साहित्यिक एवं सुशिक्षित तथा विद्वानों की भाषा थी, जबकि प्राकृत सामान्यतः ग्रामीणजन, नारी, बच्चों एवं समाज के सामान्यजनों की भाषा थी। परन्तु, दोनों ही भाषाओं का प्रयोग एक साथ समाज में चल रहा था। अतः किसी को किसी भाषा का पूर्ववर्ती या पश्चात्वर्ती कहना सम्यक् नहीं है। दोनों ही भाषाएं सहोदरा हैं, जो भिन्न-भिन्न वर्ग के लोगों द्वारा प्रयुक्त होती रही हैं।
महाभाषायें और विभाषायें प्राकृत आगमों के उल्लेखानुसार तीर्थंकर महावीर के युग में (ई. पू. ६०० के लगभग) १८ महाभाषाएं और ७०० लघुभाषाएं (बोलियाँ) प्रचलित थीं। उनमें से जैन साहित्य में प्रादेशिक भेदों के आधार पर कुछ प्राकृत आगम ग्रन्थों तथा 'कुवलयमाला' आदि काव्य रचनाओं में अठारह प्रकार की प्राकृत बोलियों का उल्लेख मिलता है। इसमें विस्तार के साथ गोल्ल, मगध, अन्तर्वेदि, कीर, ढक्क, सिन्धु, मरु, गुर्जर, लाट, मालवा, कर्णाटक, ताजि, कौशल, महाराष्ट्र प्रभृति अठारह देशी भाषाओं का विवरण दिया है। ___ “विविधा भाषा विभाषा' – इस व्युत्पत्ति के अनुसार सबसे अधिक विभाषाओं के ४२ प्रकारों का उल्लेख भरत कृत 'गीतालंकार' (नाट्यशास्त्र ३२, ४३१) में मिलता है, जिनमें से कुछ प्रमुख नाम इस प्रकार हैं - महाराष्ट्री, किराती, म्लेच्छी, सोमकी, कांची, मालवी, काशिसंभवा, देविका, कुशावर्ता, सूरसेनिका, बांधी, गूर्जरी, रोमकी, कानमूसी, देवकी, पंचपत्तना, सैन्धवी, कौशिकी, भद्रा, भद्रभोजिका, कुन्तला, कौशला, पारा, यावनी, कुर्कुरी, मध्यदेशी तथा काम्बोजी इत्यादि। इन सभी में गीत लिखे जाते थे।
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