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पुराण वाग्भट्ट ने अपने वाग्भट्टालंकार में 'भूत भाषित'
नाम से एक और भाषा स्वीकृत की है अर्थात् संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश तथा भूत-भाषित ये चार भाषाएं स्वीकृत की हैं। विद्वानों ने भूत-भाषित से उनका तात्पर्य पैशाची भाषा से ही लिया है। आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार प्राकृत भाषा के भेद -
इन्होंने प्राकृत भाषाओं का विस्तृत विवेचन अपने 'सिद्ध हेमशब्दानुशासन' नामक व्याकरण ग्रन्थ के अन्तिम अष्टम अध्याय में किया है। उनके मत से प्राकृतों के - १. प्राकृत, २. पैशाची, ३. चूलिका पैशाची, ४. मागधी, ५. आर्षी, ६. शौरसेनी, ७. अपभ्रंश - ये सात भेद हैं। यह आर्ष प्राकृत ही अर्धमागधी है, जो जैन आगमों की भाषा है। अन्य प्राकृत भाषायें
ईसा पूर्व छठी शताब्दी से ईसा की द्वितीय शताब्दी तक प्राकृत में रचे गये साहित्य की भाषा को आदि युग अथवा प्रथम युग की प्राकृत कहा जा सकता है।
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इस प्रथम युगीन प्राकृत के प्रमुख पाँच रूप प्राप्त होते हैं - १. आर्ष प्राकृत, २. शिलालेखी प्राकृत, ३. निया प्राकृत, ४. प्राकृत धम्मपद की भाषा और, ५. अश्वघोष के नाटकों की प्राकृत | १. आर्षप्राकृत भगवान् महावीर और बुद्ध के उपदेशों की भाषा क्रमशः अर्धमागधी (प्राकृत) और मागधी (पालि) के नाम से जानी गयी हैं। इन भाषाओं को आर्प प्राकृत कहना उचित है, क्योंकि धार्मिक प्रचार के लिए सर्वप्रथम इन भाषाओं का प्रयोग हुआ है ।
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२. शिलालेखी प्राकृत आर्ष प्राकृत के बाद शिलालेखों में प्रयुक्त प्राकृत भाषा का महत्वपूर्ण स्थान है। यह लिखित रूप में प्राकृत का सबसे पुराना साहित्य है। अशोक के शिलालेखों में इनके रूप सुरक्षित . हैं। शिलालेखी प्राकृत का काल ईसा पूर्व ३०० से ४०० ईस्वी तक है।
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