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छ) संस्कृत नाटकों में प्राकृत सम्वादों की उपेक्षा क्यों ?
यह चिन्ता का विषय है कि नाट्य सिद्धान्तों के विपरीत प्राकृत के संवादों को संस्कृतच्छाया के आधार पर अध्ययन-अध्यापन करने की गलत परम्परा प्रचलित हो जाने के कारण एवं कहीं-कहीं प्राकृत संवादों को समाप्त करके उनके स्थान पर संस्कृतच्छाया मात्र रख देने से उन प्राकृत भाषाओं की घोर उपेक्षा हो रही है, जो कभी जनभाषाओं के रूप में गौरव के साथ लोकप्रिय रहकर सम्पूर्ण देश को भावनात्मक एकता के सूत्र में बाँधे हुए थीं। अतः इस क्षेत्र के सभी विद्वानों को इस बहुमूल्य प्राचीन विरासत के संरक्षण हेतु मिलजुल कर प्रयास करना आवश्यक है। सट्टकः प्राकृत नाटकों की एक विशिष्ट विधा
मूलत: काव्य के श्रव्य और दृश्य – ये दो भेद होते हैं। इनमें श्रव्य काव्य तो सुनने-पढ़ने के लिए होता है। जबकि दृश्य काव्य रंगमंच की वस्तु है। जिन काव्यों का रंगमंच पर अभिनय किया जा सकता है, वे दृश्य काव्य कहलाते हैं। दृश्य काव्य के दो भेद हैं - रूपक और उपरूपक (साहित्य दर्पण ६/१-६)।
१. रूपक के दस भेद हैं - नाटक, प्रकरण, भाण, प्रहसन, डिम, व्यायोग, समवकार, वीथी, अंक और ईहामृग। २. उपरूपक के अट्ठारह भेद हैं - नाटिका, त्रोटक, गोष्ठी, सट्टक, नाट्यरासक, प्रस्थान, उल्लाप्य, काव्य. पेंखण, रासक, संलापक, श्रीगदित, शिल्पक, विलासिका, दुर्मल्लिका, प्रकरणी, हल्लीश और भणिका। क) सट्टक की विशेषतायें
सट्टक की विशेषतायें पूर्वोक्त उपरूपकों में सट्टक एक प्रमुख और विशिष्ट नाट्य विधा है। अभिनवगुप्त (१०वीं शती) ने सट्टक को
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