________________
सम्मिश्रण इसमें रहा होगा। क्योंकि इसका सम्पर्क भारत की अनेक बोलियों के साथ रहा है। पालि, अर्धमागधी आदि प्राकृतों का विकास इसी प्राकृत से हुआ! सभी वैयाकरणों ने इसकी विशेषताओं का उल्लेख किया है। इसकी प्रकृति शौरसेनी को माना गया है। विद्वानों ने शाकारी, चाण्डाली और शाबरी जैसी लोक भाषाओं को मागधी का ही रूपान्तर स्वीकार किया जाता है। क) मागधी प्राकृत की सामान्य विशेषतायें .. १. अकारान्त पुल्लिंग शब्दों के प्रथमा एकवचन में ओ की जगह
एकारान्त का प्रयोग, जैसे – एषः परुषः > एशे पुलिशे (पुरुष)।
र के स्थान पर ल, जैसे राजा > लाआ, नरः > नले। ३. स और ष के स्थान पर मात्र तालव्य श का प्रयोग। किन्तु स और
ष किसी संयुक्त वर्ण के साथ हों तो सामान्य प्राकृत की तरह दन्त्य सकार का ही प्रयोग होगा। जैसे निष्फलम् > निस्फलं,
कष्टम् > कस्टं, वृहस्पतिः > वुहप्पदि जैसे जानाति > याणदि। ४. . ज के स्थान पर य। ५. न्य, ण्य, ज्ञ, ञ्ज के स्थान पर , जैसे, सामान्य > शामज्ञ,
प्रज्ञा > पञो। अनादि च्छ के स्थान पर श्च, जैसे गच्छ > गश्च, पृच्छति > पुश्चदि। अहं के स्थान पर हके, हगे और अहके - ये तीन आदेश होते हैं। हृदय के स्थान पर हडक्क। जैसे मम हृदये > मम हडक्के। - इत्यादि ये सब मागधी की सामान्य विशेषतायें हैं। मागधी प्राकृत के दो रूप मिलते हैं - १) प्रथम युग की
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org