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जाने के कारण कुछ विद्वान् इसे अर्धमागधी कहते हैं। मार्कण्डेय के अनुसार शौरसेनी के निकट होने के कारण शौरसेनी को अर्धमागधी भी मानते हैं। निश्चय ही उपर्युक्त तीनों तथ्यों में सच्चाई मालूम पड़ती है, क्योंकि शौरसेनी और मागधी के क्षेत्र के बीच में बोली जाने वाली भाषा का अर्धमागधी नामकरण सार्थक लगता है। अर्धमागधी की रूपसंरचना में मागधी और शौरसेनी का पर्याप्त प्रभाव देखा जाता है।
क) अर्धमागधी की कतिपय विशेषताएं ___ १. इसमें 'क' के स्थान पर 'ग' होता है, किन्तु कहीं त् और य्
मिलते हैं। २. प् की व्, य् श्रुति भी देखी जाती है। ३. प्रथमा एकवचन में 'ए' तथा 'ओ' पाये जाते हैं। किन्तु गद्य में _ 'ए' तथा पद्य में 'ओ' का बाहुल्य है। ४. धातुरूपों के भूतकाल में 'इंसु' प्रत्यय लगता है। ५. कृदन्त में एक ही धातु के अनेक रूप देखे जाते हैं - कृत्वा
के कटु, किच्चा, कारिता, करित्ताणं आदि। ६. अर्धमागधी में 'न' के स्थान पर 'ण' और 'न' दोनों मिलते हैं। ख) अर्धमागधी प्राकृत का प्रमुख आगम साहित्य अंग आगम साहित्य - १. आचारांगसूत्र, २. सूत्रकृतांगसूत्र, ३. स्थानांगसूत्र, ४. समवायांगसूत्र, ५. व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र, ६. ज्ञाताधर्मकथा, ७. उपासकदशांगसूत्र, ८. अन्तकृत्दशासूत्र, ९. अनुत्तरौपपातिकदशासूत्र, १०. प्रश्नव्याकरणसूत्र, ११. विपाकसूत्र, बारहवां दृष्टिवाद लुप्त माना जाता है। उपांग आगम साहित्य - १. औपपातिकसूत्र, २. राजप्रश्नीयसूत्र, ३. जीवाजीवाभिगमसूत्र, ४. प्रज्ञापनासूत्र, ५. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र,
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