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१४. प्राकृत सर्वस्व - १७वीं शती के आचार्य मार्कण्डेय कृत यह प्राकृत व्याकरण का ग्रन्थ २० पादों में विभक्त है। इसमें दिये गये नियम पद्यबद्ध हैं तथा काव्यादर्श, भट्टिकाव्य, सेतुबन्ध, कर्पूरमंजरी, गउडवहो, मृच्छकटिक, शाकुन्तलम्, प्राकृत पैंगलम् आदि ग्रन्थों से इसमें उदाहरण प्रस्तुत किये गये हैं। इसमें प्रायः अपभ्रंश की २७ तथा पैशाची की ११ विधाओं पर विवेचन प्रस्तुत किया गया है।
मार्कण्डेय ने अपने इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में शाकल्य, भरत, कोहल, वररुचि, भामह और वसन्तराज नामक प्राकृत वैय्याकरणों के नामोल्लेख किये हैं, जिनसे मार्कण्डेय ने अपने इस ग्रन्थ में विषय सामग्री ली है। इससे स्पष्ट है कि प्राकृत व्याकरणों की प्राचीन और समृद्ध परम्परा रही है। आचार्य भरत मुनि ने अपने नाट्य शास्त्र के १७वें अध्याय में भी प्राकृत व्याकरण सम्बन्धी नियमों का उल्लेख किया है।
१५. प्राकृत शब्द प्रदीपिका - नृसिंह शास्त्री कृत प्राकृत भाषा के इस व्याकरण ग्रन्थ का प्रकाशन उस्मानिया विश्वविद्यालय, हैदराबाद से सन् १९९२ में प्रकाशित हुआ है। इसमें प्राकृत की सभी भाषाओं का व्याकरण अच्छी तरह प्रस्तुत किया गया है।
१६. जैन सिद्धान्त कौमुदी - १९वीं शती के प्रकाण्ड विद्वान् मुनि रत्नचन्द्र जी ने इस बृहद् प्राकृत व्याकरण ग्रन्थ की रचना की है तथा इस पर स्वोपज्ञ वृत्ति भी लिखी है।
१७. प्राकृत के अन्य व्याकरण - पूर्वोक्त ग्रन्थों के अतिरिक्त षड्भाषाचक्रवर्ती शुभचन्द्रसूरि ने हेमचन्द्र का अनुकरण करके चिंतामणि व्याकरण, मुनि श्रुतसागर ने औदार्यचिन्तामणि, आचार्य समन्तभद्र ने प्राकृत व्याकरण (अनुपलब्ध) तथा देवसुन्दर ने प्राकृतयुक्ति नामक
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