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मार्कण्डेय के अनुसार भाषाओं के भेद-प्रभेद
__प्राकृत सर्वस्वकार मार्कण्डेय ने अपने ग्रन्थ में भाषाओं के तथा उनके अवान्तर भेदों के ४३ भेद स्वीकृत किए हैं। प्रथम भाषाओं के चार भेद हैं – १. भाषा, २. विभाषा, ३. अपभ्रंश, ४. पैशाची। इनमें प्रत्येक के उपभेद इस प्रकार हैं -
१. भाषा के पांच भेद- १. महाराष्ट्री, २. शौरसेनी, ३. प्राच्या, ४. अवन्ती, ५. मागधी। अर्धमागधी को मागधी के अन्दर ही परिगणित किया गया है।
२. विभाषा के भी पांच भेद - १. शाकारी, चाण्डाली, ३. शाबरी, ४. आभारिकी, ५. शाक्वी (शारवी)।
३. अपभ्रंश के २७ भेद - अपभ्रंश के जिन २७ भेदों के नाम आगे दिये गये हैं, इनमें आद्री तथा द्राविड़ी नहीं हैं, पर इसके साथ अपभ्रंश के - १. नागर, २. ब्राचड़, ३. उपनागर - ये तीन भेद और हैं। इस प्रकार अपभ्रंश के ३० भेद हैं।
४. पैशाची के तीन भेद - १. कैकेयी, २. शौरसेनी, ३. पांचाली।
इस प्रकार भाषा के ५, विभाषा के ५, अपभ्रंश के ३०, और पैशाची के ३ कुल मिलाकर ४३ भेद माने हैं।
____ रुद्रट के अनुसार – रुद्रट ने अपने काव्यालंकार में भाषाओं का वर्गीकरण - १. प्राकृत, २. संस्कृत तथा ३. अपभ्रंश - इन तीन रूपों में किया है। प्राकृत तथा अपभ्रंश की पृथक् सत्ता स्वीकृत की है।
दण्डी के अनुसार – दण्डी ने काव्यादर्श में संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश के साथ ही भाषाओं का एक 'मिश्र' भेद और स्वीकृत किया है। और इन्हीं चार भाषाओं में रचित ग्रन्थ पाये जाते हैं। यथा -
'तदेतद्वाङ्मयं भूयस्संस्कृत प्राकृतं तथा। अपभ्रंशश्च मिश्रं चेत्याहुराप्ताश्चतुर्विधः॥'
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