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प्राकृत गीतों की प्रयोग विधा है, विभाषायें
आचार्य भरत मुनि के समय में प्राकृत के गीत प्रशस्त माने जाते थे। उन्होंने ध्रुवा तथा गीतों का लोकनाट्य के प्रसंग में विविध विभाषाओं (बोलियों) का वर्णन किया है, जिनमें मागध गीतों को प्रथम स्थान दिया है। इन गीतों के विधान को देखकर और महाकवि कालिदास आदि की रचनाओं में प्रयुक्त गीतियों, मौखिक गीतों एवं महाकाव्यों में प्रयुक्त गीतों के अध्ययन से यह निश्चय हुए बिना नहीं रहता कि सिद्धों के गीतों की भांति इस देश का मूल प्राचीनतम साहित्य लोकगीतों में निबद्ध रहा होगा, जो लेखन के अभाव में संरक्षित नहीं रह सका।
. उन स्वतन्त्र बोलियों की स्वतंत्र पहचान करने के लिए आज हमारे पास कोई साधन नहीं है। न ही भगवान महावीर और न गौतमबुद्ध के उपदेशों की लोकबालियाँ ज्यों की त्यों उपलब्ध होती हैं। परन्तु इसके अनेक शास्त्रीय प्रमाण उपलब्ध होते हैं। चूंकि वेदों की संस्कृत और प्राकृत दोनों का मूल स्रोत एक ही रहा है। हम देख सकते हैं कि आर्य-भाषाओं में सघोष ध्वनियों के एक नियम के अन्तर्गत ख, घ, ध, भ ध्वनियों का प्राकृत में 'ह' हो जाता है। अत: संस्कृत में 'भ' के स्थान पर 'ह' होने की प्रवृत्ति मूलतः प्राकृत है; जैसे कि - जग्राह, हरति।
यह सुनिश्चित है कि वेदों की रचना किसी एक समय में एक स्थान पर नहीं हुई। वैदिक साहित्य की रचना लगभग एक सहस्राब्दि में क्रमशः काबुल से लेकर तिरहुत तक कई केन्द्रों पर हुई थी। 'ऋग्वेद' का सबसे प्राचीन भाग ‘गोत्र मण्डल' (ऋग्वेद, मण्डल २-७) कहा जाता है, लेकिन प्रयत्नों के लिए जाने पर भी ध्वनियों के मूल शब्दोच्चार आज सुरक्षित नहीं है। भले ही प्राचीन बोलियों के भाषिक रूप आज उपलब्ध न होते हों और न उन बोलियों को जानने के हमारे पास साधन हों, फिर भी कितने आश्चर्य की बात है कि संस्कृत के वैयाकरण और आधुनिक भाषाशास्त्री एक स्वर से यह कह रहे हैं कि भाषा-विकास की प्रक्रिया अनादि तथा अविच्छिन्न है।
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