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इस तरह प्राकृत भाषा ने देश की चिन्तनधारा
सदाचार,
नैतिक मूल्य, लोकजीवन और काव्य जगत् को निरन्तर अनुप्राणित किया है। अतः यह प्राकृत भाषा भारतीय संस्कृति की संवाहक है । इस भाषा ने अपने को किसी घेरे में कैद नहीं किया । अपितु विशाल और पवित्र गंगा नदी के प्रवाह की तरह प्राकृत के पास जो था, उसे वह जन-जन तक बिखेरती हुई आप्लावित करती रही और जन-मानस में जो अच्छा लगा, उसे वह ग्रहण करती रही। इस प्रकार प्राकृत भाषा सर्वग्राह्य और सार्वभौमिक तो है ही, साथ ही भारतीय संस्कृति की अनमोल निधि और आत्मा भी है।
वर्तमान भाषाओं / लोक - भाषाओं का मूल - उद्गम
भाषावैज्ञानिकों का यह अभिमत है कि महाराष्ट्री अपभ्रंश से मराठी और कोंकणी; मागधी अपभ्रंश की पूर्वी शाखा से बंगला, उड़िया तथा असमिया; मागधी अपभ्रंश से बिहारी, मैथिली, मगही और भोजपुरी; अर्द्धमागधी अपभ्रंश से पूर्वी हिन्दी - अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी; शौरसेनी अपभ्रंश से बुन्देली, कन्नौजी, ब्रजभाषा, बांगरू, हिन्दी ; नागर अपभ्रंश से राजस्थानी, मालवी, मेवाड़ी, जयपुरी, मारवाड़ी तथा गुजराती; पालि से सिंहली और मालदीवन; टाक्की या ढाक्की से लहँडी या पश्चिमी पंजाबी; शौरसेनी प्रभावित टाक्की से पूर्वी पंजाबी; ब्राचड अपभ्रंश से सिन्धी भाषा ( दरद); पैशाची अपभ्रंश से कश्मीरी भाषा का विकास हुआ है।
भाषाओं के सम्बन्ध में यह भी एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि भाषा की स्थिति विभिन्न युगों में परिवर्तित होती रही है। भावों के संवहन के रूप में जनता का झुकाव जिस ओर रहा, भाषा का प्रवाह उसी रूप में
ढलता गया ।
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यद्यपि पूर्वोक्त सभी क्षेत्रीय भाषाओं के रूप आज हमारे सामने नहीं हैं; किन्तु भाषावैज्ञानिकों की भाषा विषयक अवधारणाओं तथा मध्यकालीन एवं आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं के विकास क्रम को
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