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से ही प्राकृत की जड़ें जनता की बोलियों के भीतर जमीं हुई हैं (प्राकृत भाषाओं का व्याकरण : पृष्ठ १४)। भाषा-वैज्ञानिक अध्ययन से यह स्पष्ट है कि प्राकृत, संस्कृत का विकृत रूप नहीं है।
आचार्य भरत मुनि (ईसा की तीसरी शताब्दी) के नाट्यशास्त्र (१७-१८) में जो मागधी, अवन्तिजा, प्राच्या, शौरसेनी, अर्धमागधी, वालीका और दाक्षिणात्या – ये प्राकृत के सात भेद गिनाये गये है, वे. इन भाषाओं की भौगोलिकता को ही सूचित करते हैं। मतलब यह है कि जो भाषा प्रकृति अर्थात् स्वभावसिद्ध हो और जनसामान्य द्वारा व्यवहार में लाई जाती हो, वह प्राकृत है, और संस्कारित कही जाने वाली संस्कृत से वह भिन्न है। पाणिनी ने वैदिक वाङ्मय को छान्दस आर साधारण जनों की बोलचाल को “भाषा' नाम दिया है, इससे भी दोनों भाषाओं का पार्थक्य सिद्ध होता है। प्राकृत की उत्पत्ति सम्बन्धी भ्रम निवारण
आश्चर्य है कि भाषा वैज्ञानिक तथा अन्यान्य प्रमाणों के बावजूद कुछ लोग आज भी यही समझते हैं कि संस्कृत का विकार या विकृत रूप प्राकृत है और प्राकृत का विकार अपभ्रंश भाषाएं हैं। किन्तु उनकी यह गलत अवधारणा है। सम्भवतः इस मिथ्या अवधारणा के पीछे प्राकृत वैयाकरणों, विशेषकर आचार्य हेमचन्द्र के कथन की यथार्थता न समझ पाने के कारण भी रहा होगा।
कुछ विद्वान् आचार्य हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण (सिद्धहेमशब्दानुशासन के अष्टम अध्याय) के “अथ प्राकृतम्" - इस प्रथम सूत्र और इसकी वृत्ति के आरम्भिक अंश "प्रकृतिः संस्कृतम्। तत्र भवं तत आगतं वा प्राकृतम् - का यह प्रमाण देकर बिना कुछ सोचे-समझे कह देते हैं कि संस्कृत से प्राकृत भाषा की उत्पत्ति हुई है। किन्तु यह भी उनका भ्रम मात्र है।
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