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भाषा होने के कारण शिष्टजनों की भाषा बन गई थी। वह एक विशिष्ट वर्ग की भाषा.थी जिसमें साहित्य की रचना होने लगी थी। वैदिक संस्कृत के लिये शिक्षा और व्याकरण की इसलिये आवश्यकता हुई कि आर्यों द्वारा पवित्र स्वीकार किये जाने वाले वेदों की ऋचाओं का सही ढंग से शुद्ध उच्चारण किया जा सके। प्राकृत जो आर्यों की बोलचाल की भाषा रही है, उनकी स्थिति बिल्कुल भिन्न थी। प्राकृत भाषा की सामान्य प्रकृति सदा परिवर्तनशील रही है। भौगोलिक परिस्थितियों से यह प्रभावित होती गई है। - इस प्रकार वेदों से उपनिषदों की भाषा और उपनिषदों से महाकवि कालिदास, हर्ष आदि की भाषा में अन्तर परिलक्षित होता है। यह अन्तर किसी की भाषा में विकार और किसी की भाषा में विकास के नाम से जाना जाता है। यथार्थ में किसी भी भाषा का गतिहीन हो जाना अस्वाभाविक है और विकृत होते (बदलते) रहना उसके जीवित रहने का प्रमाण है। संस्कृत का विकृत रूप नहीं है, जनभाषा प्राकृत - जैसे भाषा-विकास की विभिन्न अवस्थाओं को जानने के लिए संस्कृत भाषा और उसके साहित्य का अध्ययन आवश्यक है, उसी तरह वर्तमान की भारतीय भाषाओं में हिन्दी, राजस्थानी, गुजराती, मराठी, पंजाबी आदि अनेक भाषाओं के विकासक्रम को जानने के लिए प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं तथा इनके साहित्य का अध्ययन आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है। क्योंकि ये सब भाषायें प्राकृत-अपभ्रंश भाषाओं की सगी बेटियाँ हैं। प्राकृत भाषा के शिक्षण, अध्ययन एवं विकास से देश की विभिन्न भाषाओं के विकास, प्रचार-प्रसार एवं भाषावैज्ञानिक अध्ययन को सुगमता एवं जीवन शक्ति प्राप्त होगी।
'हिन्दी' जिस भाषा के विशिष्ट दैशिक और कालिक रूप का नाम है, भारत में इसका प्राचीनतम रूप प्राकृत है। आदिकाल
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