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ध्यान में रखकर इन सम्भावनाओं को झुठलाया भी नहीं जा सकता। वास्तविकता भी यही है कि भाषाओं के विकास की जड़ें आज भी लोक- बोलियों में गहराई तक जमी हुई लक्षित होती हैं । कभी-कभी हम यह अनुमान भी नहीं कर सकते हैं कि कतिपय शब्दों को जिन्हें हम केवल वैदिक साहित्य में प्रयुक्त पाते हैं । वे हमारी बोलियों में सहज ही उपलब्ध हो जाते हैं।
डॉ. देवेन्द्र कुमार शास्त्री ( अपभ्रंश भाषा और साहित्य की शोध-प्रवृत्तियाँ नामक पुस्तक के लेखक) का मानना है कि विभाषायें ही मध्यकाल में क्षेत्रीय भेदों के आधार पर अपभ्रंश बोलियों के रूप में प्रचलित रहीं। क्षेत्रीय भाषाओं के रूप में आज हम जिन बोलियों को भाषा के रूप में विकसित देख रहे हैं, उनका जन्म आठवीं शताब्दी के लगभग अपने-अपने क्षेत्रों की अपभ्रंश बोलियों से हुआ था । वैदिक साहित्य के अध्ययन से भी यह स्पष्ट हो जाता है कि बोलियों का महत्त्व सदा बना ही रहा है।
इन प्राकृतों को जब व्याकरण के नियमों में बाँधा गया, तब पुनः जनभाषाओं के प्रवाह को रोका न जा सका, जिससे अपभ्रंश भाषाओं का जन्म हुआ । कालान्तर में अपभ्रंशों को नियमबद्ध करने के प्रयत्न हुए, जिससे आधुनिक भारतीय आर्य भाषाएं उत्पन्न हुईं, जिनमें हिन्दी, बंगाली, उड़िया, असमियाँ, भोजपुरी, मगही, मैथिली, पंजाबी, राजस्थानी, गुजराती, मराठी आदि सम्मिलित हैं। निश्चित ही इन भाषाओं से और भी अनेकानेक बोलियों/भाषाओं का विकास होता रहा है। यह सब अनुसंधान का आवश्यक विषय है।
जहाँ एक ओर लौकिक संस्कृत नियमबद्ध होकर स्थिर हो गयी, वहीं दूसरी ओर प्राकृत विभिन्न क्षेत्रीय जनभाषाओं के सहयोग से विकसित हुई और पालि, अर्द्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री, मागधी, पैशाची, चूलिका, अपभ्रंश आदि भौगोलिक नामों से साहित्यिक भाषायें बन गयीं ।
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