________________
भाषा को लिए हुये हैं, किन्तु बोलचाल की वे भाषायें, जो बाद में साहित्यिक भाषाओं के पद पर प्रतिष्ठित हुई, संस्कृत की भांति ही बहुत ठोकी-पीटी गईं, ताकि उनका एक सुगठित रूप बन पाए। "
डॉ. एलफेड सी. वुल्नर (इण्ट्रोडक्शन टू प्राकृत, पृ. ३-४) ने लिखा है - " संस्कृत शिष्ट समाज की और प्राकृत जनसाधारण की भाषा है। प्राकृत का सम्बन्ध श्रेण्य संस्कृत की अपेक्षा छान्दस से अधिक है। क्योंकि इस साहित्य के प्राकृत का मुख्य भाग संस्कृत शब्दों से बना है। छान्दस के साथ प्राकृत पद-रचनाओं एवं ध्वनियों की तुलना सहज में की जा सकती है।"
इस सबसे स्पष्ट है कि वैदिक काल में कोई ऐसी जनभाषा प्रचलित रही है, जिससे छान्दस साहित्यिक भाषा का विकास हुआ होगा । कालान्तर में इस छान्दस को भी पाणिनी ने अनुशासित कर इसमें से विभाषा के तत्त्वों को निकालकर लौकिक संस्कृत को जन्म दिया।
ख
इस तरह बोलचाल की भाषा के प्राचीन रूप छान्दस के ही आधार पर वेदमन्त्रों की रचना हुई थी और उसका प्रसार और प्रभाव ब्राह्मण-ग्रन्थों तथा सूत्रग्रन्थों तक रहा। पीछे से वह छान्दस परिमार्जित होकर लौकिक संस्कृतरूप में प्रयुक्त होने लगी। साथ ही साथ बोलचाल की जनभाषा प्राकृत भाषा भी समृद्ध रूप में बनी रही।
वैदिक तथा परवर्ती संस्कृत के वे शब्द जिनमें 'न' के स्थान पर 'ण' का प्रयोग हुआ है, प्राकृत रूप है। इस प्रकार छान्दस में प्राकृत भाषा के तत्त्वों का समावेश स्पष्ट करता है कि यह भाषा लौकिक संस्कृत की अपेक्षा प्राचीनतर है।
वर्तमान में प्राकृत भाषा का सबसे प्राचीन रूप जो इस समय हमें प्राप्त है, वह सम्राट अशोक और कलिंग नरेश खारवेल आदि के शिलालेखों, पालि त्रिपिटक और जैन आगम ग्रन्थों में उपलब्ध है । उसी
Jain Education International
१६
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org