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इसी प्रकार, छान्दस भाषा की पदरचना का अध्ययन प्राकृत की पद रचना के अध्ययन के बिना अपूर्ण है; क्योंकि 'देवेभिः' जैसे अनेक रूप 'ऋग्वेद' में देखे जाते हैं, उनके विकसित रूप प्राकृत में भी प्रायः उपलब्ध है।
ध्वनिविज्ञान की दृष्टि से संस्कृत ध्वनियों के अध्ययन के सन्दर्भ में प्राकृत ध्वनियों के अध्ययन की नितान्त आवश्यकता है। उदाहरणार्थ – “इंगाल' और 'मैरेय' - ये शब्द प्राकृत ध्वनि से युक्त प्राकृत भाषा के शब्द हैं। प्राकृत मूलध्वनि के शब्द इंगाल और मइरेय' हैं, जिनको संस्कृत में ग्रहण किया गया है। यद्यपि 'मारिस' शब्द का विकास संस्कृत के 'मादृश' से सम्भावित है, परन्तु यह नितान्त भ्रम ही है। क्योंकि, यह शब्द आदर के अर्थ में सम्बोधन में प्रयुक्त है। संस्कृत नाटकों में यह प्राकृत भाषा से लिया गया है। कवि श्रीहर्ष ने 'इङ्गाल' (कोयला) शब्द का प्रयोग किया है – 'वितेनुरिंगालमिवायशः परे।' (नैषध. १/९) यह शब्द भी प्राकृत से संस्कृत में ग्रहण किया गया है।
इसी प्रकार, 'मइरेय' शब्द ‘मदिरा' से विकसित ('मदिरेय') एवं प्राकृत ध्वनि से निष्पन्न शब्द है, किन्तु संस्कृत में इसका प्रयोग प्रचुरता से मिलता है और आयुर्वेद में तो इसे मद्य का पर्याय ही मान लिया गया है। (देखिए - भावप्रकाश, सन्धानवर्ग, श्लोक १७)
इस तरह उत्तरवैदिक काल की ‘उदीच्य भाषा' प्राकृत-भाषा के अधिक निकट है। उदीच्य प्रदेश गान्धार के 'शालातुर' गाँव में जन्मे तथा तक्षशिला में शिक्षित संस्कृत के असाधारण विद्वान् महर्षि पाणिनि (ईसा पूर्व लगभग पांचवीं शताब्दी) ने इसी उदीच्य भाषा का आधार लेकर साहित्य एवं परिसंस्कृत रूप निर्माण के लिए अष्टाध्यायी के चार हजार सूत्रों में सर्वांगीण संस्कृत व्याकरण की रचना की। अतः संस्कृत व्याकरण के अध्ययन के लिए निपातसिद्ध शब्दों, उपसर्गों तथा
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