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"तां यह नहीं होगा, वही कहना चाहती हो?" "ऐसा नहीं, यों ही मैं बीच में क्यों रहूँ! इसलिए कहा।"
"यही तो तुम पालत सोचती हो। छोटे अप्पाजी के उपनयन के निमन्त्रण-पत्र का जो प्रसंग उठ खड़ा हुआ हैं, उस बारे में विचार होते वक़्त तुम्हारा उपस्थित रहना अच्छा होगा क्योंकि इस प्रसंग का कितना ब्योरा हेग्गड़ेजी जानते हैं वह अब हमें भी मालूम होना चाहिए। वह मालूम हो जाए तो आगे के लिए कुछ रास्ता निकल आएगा। अनायास यह मौका मिला है। वह भी इसलिए कि हेग्गइंजी युक्रानी जी के सुरक्षा कार्य पर यहाँ आये हैं। समझीं !''
''हूँ, मैं भी उपस्थित होगी, आप दोनों के उपाहार के बाद ।" 'वैसा ही करी." कहकर दण्डनायक जी अपने कमरे की ओर चले गये।
चामब्बे भी अपनी कोटरी की ओर चली मची। वह खुद को इस अनाकांक्षित मुलाकात के लिए पहले में तैयार कर लेना चाहती थी।
निश्चित समय पर हेगड़े मारसिंगय्या आ पहुँचे। दांडगा ने मालिक की आज्ञा के अनुसार उन्हें बैठाकर आने की खवर भेज दी।
दण्डनायक आये। हेग्गडेली ने उठकर हाथ जोड़कर प्रणाम किया। बैटिए हेगड़ेजी' कहते हए दण्डनायक जी हेगड़े के पास बग़ल में बैठ गये। हेग्गड़े दो कदम पीछे हटकर घोड़ी दूर जाकर बैटे। दण्डनायक जी ने तकिये का सहारा ले लिया। हेगड़ेजी तकिये से कुछ आगे पाल्थी मारकर बैठ गये थे।
''यहां किसी तरह के संकोच की ज़रूरत नहीं, हेग्गड़जी। यह यर है। आप मेरे आमन्त्रित अतिथि हैं। मैं दण्डनायक हूँ और आप हेग्गड़े-इसे कम-से-कम वहाँ घर पर तो भूल जाइए।"
घर हो या बाहर, आप पोय्सल साम्राज्य के महादण्डनायक हैं। मैं कहीं भी रहूँ, आखिर हूँ तो एक साधारण हेगड़े हो। और आप कहीं भी रहें, आपको यथोचित गौरव तो मिलना ही चाहिए। इसे मेरा संकोच न समझें।" विनीत होकर हेग्गड़े ने कहा। उनके कहने में पूरी सहजता थी।
रसोइन देकच्चे एक थाली में पानी का लोटा और उपाहार सामग्री ले आयी थीं। वहाँ से वह लौट ही नहीं पायी थी कि दण्डनायिका आ पहुंची। आते ही पूछा, "आपकी बेटी और हेग्गड़ेजी कुशल तो हैं न?"
"सब भगवान की कृपा और आप जैसों का आशीर्वाद है। सब कुशल हैं।''
"लीजिए हेग्गड़ेजी," कहते हुए दण्डनायक ने थाली की ओर हाथ बढ़ाया। हेग्गड़े ने भी उनका अनुसरण किया। नाश्ता होने लगा। ___ दण्डनायिका ने कहा, "हमारे कवि नागचन्द्र जी आप सबकी बड़ी प्रशंसा कर रहे थे।"
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो :: 17