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(१) पर्याप्त संख्या में छोटे पुरावशेषों की प्राप्ति ( २ ) पुरातात्त्विक स्थल के नजदीक आकर्षक पुरातात्त्विक वशेषों या संरचनात्मक स्मारकों का होना व (३) आगन्तुकों के लिए संग्रहालय या स्थल तक पहुँचने की सुविधा । तर गुजरात में साबरकांठा जिला स्थित शामलाजी उपर्युक्त तीनों विशेषताओं से युक्त है अतः यहाँ एक विकसित तात्त्विक स्थल संग्रहालय की आवश्यकता है |
शामलाजी व उसके आसपास स्थित विविध पुरावशेषों की ओर सर्वप्रथम ध्यान श्री पी. ए. इनामदार त्कालीन नियामक, पब्लिक इंस्ट्रक्शन एंड आर्कियोलोजी) ने १९३६ में प्रकाशित अपनी पुस्त 'Some ·chaeological Finds in the ldar State' के माध्यम से कराया। इसके बाद १९५० में हमन गोट्ज 'Gupta Sculptures from North Gujarat'." तथा १९६० में यू.पी. शाह ने Sculputures from mlaji and Roda" में शामलाजी की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर को सचित्र प्रकाशित किया । पी. ए. इनामदार यू. पी. शाह ने इस विस्तार में कई और मूर्तियों, मंदिर व गुफाओं के दबे होने की भी आशंका व्यक्त की बाद में सत्य साबित हुई ।
सर्वेक्षण के दौरान भोज - राजा-नो-टेकरो व आसपास के विस्तार से कई टीले (चित्र - ४) व पुरावशेष हुए । अत: इस विस्तार पर ध्यान केन्द्रित कर ११ फरवरी १९६० को उत्खनन की शुरूआत हुई ।" उत्खनन भोज - राजा-नो-टेकरो के पश्चिम में स्थित उपशंक्वाकार टीले से पुराने मन्दिर व दक्षिण स्थित टीले से चर्ट, ट, चालसेडनी, क्वार्टज़ाइट के औजार प्राप्त हुए। कुछ लघु पाषाण औजार देवनी मोरी विस्तार में विहार5 दक्षिण से प्राप्त हुए। बौद्ध वसाहत संबंधी अवशेषों में एक बड़ा शारीरिक स्तूप, चार उद्देशिक स्तूप ( Votive pas), एक आयताकार संरचना, एक अर्द्धवृत्ताकार मंदिर (apsidal temple) सुरक्षा प्राचीर प्रमुख हैं। संभवत: विहार के निर्माण से वसाहत प्रारंभ हुई, जो तीन-चार सदियों तक समृद्ध रही । विहारों का विस्तरण व र्माण जनसंख्या में वृद्धि को दर्शाता है ।
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देवनी मोरी से प्राप्त मृद्भाण्डों में रोमन एम्फोरा ( प्रथम सदी ई.स. के प्रारंभ में रोम से आयातित ), चमकीला मृद्भाण्ड, चित्रित धूसर मृद्भाण्ड मुख्य है ।" धातुओं में सोना, चाँदी, ताम्र, सीसा, लोहा, जस्ता वगेरे के अवशेष प्राप्त हुए हैं । चाँदी, ताम्र व सीसा के कुल ६९ सिक्कों में अधिकांशतः क्षत्रपकालीन हैं । व भारतीय ससानियन सिक्कों की प्राप्ति के आधार पर वसाहत क्षत्रपकाल यानि द्वितीय सदी ई.स. से चौथी ई. स. तक रही, ऐसा कह सकते हैं ।" स्तूप कास्केट (चित्र ५) में कथिक संवत १२७ व रुद्रसेन लिखा है जिसे रुद्रसेन तृतीय ( ३४८ - ३८० ई.स.) के समय का माना जाता है ।" प्राप्त ३७२ लौह औजारों में कटार, बाण मुख्य हैं ।" सातवी-आठवी सदी ई. स. के. बाद का कोई अवशेष प्राप्त नहीं होता । अतः समय तक वसाहत थी । इसके बाद स्मारक ने धीरे धीरे गिरते हुए टीले का रूप ले लिया । स्थापत्य का पुनरुद्धार पुन: दसवीं सदी से हुआ तथा पन्द्रहवीं सदी तक यह पराकाष्ठा पर पहुंचा और निर्माण कार्य ए मुख्यतः पत्थर व ईंटों का प्रयोग किया गया ।
देवनी मोरी से मृण्फलक आकृतियाँ (terracotta figures) भी प्राप्त हुई है ।" सम्पूर्ण महास्तूप मृण्फलक च्छादित था । मृण्फलक के साथ मूर्तियाँ व आलंकारिक चित्रित ईंट भी प्राप्त हुई हैं । ध्यानस्थ मुद्रा में
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से २' ३" माप की कुल २६ बौद्ध प्रतिमाएँ प्राप्त हुई हैं (चित्र ६) जो उच्च ताप में निर्मित तथा त्मक हैं । इनकी दाहिनी हथेली बायी के उपर है। पीठ सीधी तथा मुख, वक्ष स्थल, गर्दन, हाथ व सिवाय सम्पूर्ण शरीर पारदर्शक संघाटी से ढका है। मूर्तिकला पर कुषाणकालीन गांधार एवं मथुरा शैलियों
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पथि • दीपोत्सवांड खोस्टो - नवे - डिसे. २००१ • ७४
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