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पर्युषण-प्रवचन
खिन्न मन; मुँह लटकाए, मुहर्रमी सूरत बनाए, तन मन जब उन पुण्य क्षणों में, जीवन की उन पवित्र लहरों में, स्नेह और प्रेम की धाराओं में बह जाता है तो सारा जीवन हर्ष से नाचने लगता है ।
पर्युषण पर्व आपके सामने है । भारतीय पुराने साहित्य के दृष्टिकोण से, जैन परम्परा के उन पुराने पन्नों के हिसाब से पर्युषण पर्व आज ही है । मैं देख रहा हूँ कि जैन समाज का एक-एक घर हर्ष से नाच रहा है । घर का कोना-कोना हँसी में उन्मुक्त हो रहा है । घर का मतलब है घर का स्वामी, घर में निवास करने वाले व्यक्ति । आज भारतवर्ष के एक सिरे से दूसरे सिरे तक भगवान महावीर की परम्परा के उत्तराधिकारी और पर्युषण-पर्व की मंगल-वेलाओं का आनन्द लेने वालों की पुरानी पीढ़ी के उत्तराधिकारी आज जहाँ भी हैं, उनका घर पर्व के स्वर से, हर्ष से और आनन्द से गूंजने लगा होगा । सारा घर हँस रहा होगा, बहिन, भाई, बच्चे सभी आनन्द की लहरों में चल रहे होंगे । तपस्वियों को तपाराधना करते हुए आठ-आठ दिन हो गये हैं, शरीर जवाब देता है, लड़खड़ाता है, फिर भी उनके मन हर्ष से नाच रहे हैं, उनके मन आज भी वैसे ही खिले हुए हैं । क्या कारण है इसमें ? बात यह है कि वे आध्यात्मिक पर्व की भावनाएँ दो-दो हजारों वर्षों से हमारे पूर्वजों से हमें विरासत में मिलीं, उनकी वे आध्यात्मिक विचार धाराएँ, वह आप्त पुरुषों
का चिन्तन और मनन और उनकी आत्मा के मर्म को छूने वाली विचार-धाराएँ; आज भले ही उसको हम भूल गये हों, हमारा पतन हो गया हो, हम रास्ते से लुढ़क गये हों, पाताल में और रसातल में पहुँच गये हों; परन्तु जैन धर्म का वह आध्यात्मिक पर्व और उसका वह महान् चिन्तन वर्ष में कम से कम एक बार तो ऐसी उछाल मारता है कि हमारी विचारधारा भी हिमालय की चोटियों पर टक्कर मारने लगती है ।
हमारा जैनत्व कितना ही सोया हुआ क्यों न हो, भले ही वह बाजारों की सौदेबाजी में अपने आपको भूल गया हो, घर के कलह में, आपस के द्वेष और झगड़े में, काम में, क्रोध में, ईर्ष्या और कलह में क्यों न डूब गया हो और इस प्रकार इन सबने मिल कर उसके स्वरूपं को कितना ही धुंधला क्यों न कर दिया हो, लेकिन आज का दिन है कि हमारा वह सोया हुआ जैनत्व भी जाग उठता है, अंगड़ाई लेता है और वह अन्य विकारों में, संसार की गन्दगी में व्यापार की हड़बड़ाहट में, दुनिया
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