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पर्युषण-प्रवचन
प्राचीन जैन, बौद्ध एवं वैदिक ग्रन्थों के अनुशीलन से ऐसा लगता है कि उस समय में पर्व त्यौहार जीवन के आवश्यक अंग बन गए थे । एक भी दिन ऐसा नहीं जाता, जब कि समाज में पर्व त्यौहार व उत्सव का कोई आयोजन नहीं हो । इतना ही नहीं किन्तु एक-एक दिन और तिथियों में दस-दस और उससे भी बहुत अधिक पर्यों का सिलसिला चलता रहता था । सामाजिक जीवन में बच्चों के पर्व अलग, औरतों के पर्व अलग और वृद्धों के पर्व अलग । इस दृष्टि से भारत का मन-जीवन बहुत ही उन्नत और आनन्दित रहा । पर्यों का संदेश
हमारे पर्यों की वह लड़ी, कुछ भिन्न-भिन्न हुई परम्परा के रूप में आज भी हमें महान अतीत की याद दिलाती है । हमारा अतीत उज्ज्वल रहा है, इसमें कोई संदेह नहीं, किन्तु वर्तमान कैसा गुजर रहा है यह थोड़ा विचारणीय है । पर्व के पीछे सिर्फ अतीत की याद को ताजा करना ही हमारा लक्ष्य नहीं है, किन्तु उसके प्रकाश में वर्तमान को देखना भी आवश्यक है । अतीत का वह गौरव जहाँ एक ओर हमारे जीवन का एक सुनहला पृष्ठ खोलता है, वहाँ दूसरी ओर नया पृष्ठ लिखने का भी संदेश देता है । इसलिए पर्यों की खुशी के साथ-साथ हमें अपने नव-जीवन के अध्याय को भी खोलना चाहिए और उसका अवलोकन करके अतीत को वर्तमान के साथ मिलाना चाहिए । जीने की कला • यद्यपि जैन धर्म की परम्परा निवृत्ति-मूलक रही है । उसके अनुसार जीवन का लक्ष्य भोग नहीं, त्याग है । बन्धन नहीं, मोक्ष है । किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि वह सिर्फ परलोक की ही बात करता है । इस जीवन से उसने आँखे मूंद ली हों । हम इस संसार में रहते हैं, तो हमें इस संसार के ढंग से ही जीना होगा, हमें जीने की कला सीखनी होगी । जब तक जीने की कला नहीं आती है, तब तक जीना वास्तव में आनन्ददायक नहीं होता । जैन परम्परा, जैन पर्व, एवं जैन विचार हमें जीने की कला सिखातें हैं, हमारे जीवन को सुख और शान्तिमय बनाने का मंत्र देते हैं । जैन धर्म का लक्ष्य मुक्ति है, किन्तु इसका यह अभिप्राय नहीं कि उसके पीछे इस जीवन को बर्बाद कर दिया जाए । वह नहीं कहता है कि मुक्ति के लिए, शरीर, परिवार व समाज के बन्धनों को तोड़ डाले, कोई किसी को अपना नहीं माने, कोई पुत्र अपने पिता को पिता न माने पति-पत्नी परस्पर कुछ
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