________________
पर्वो का सन्देश
भी स्नेह का नाता न रखें, बहन-भाई आपस में एक-दूसरे से निरपेक्ष होकर चलें — जीवन की यात्रा में चलते हुए, परिवार, समाज व राष्ट्र के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का भार उतार फेंके - इस प्रकार तो जीवन में एक भयंकर तूफान आ जायगा, भारी अव्यवस्था और अशान्ति बढ़ जायगी, मुक्ति की अपेक्षा, स्वर्ग से भी गिरकर नरक में चले जाएँगे । जैन धर्म का सन्देश है— जहाँ भी रहें अपने स्वरूप को समझकर रहें, शारीरिक, पारिवारिक एवं सामाजिक सम्बन्धों के बीच बँधे हुए भी उनमें कैद न हों । परस्पर एक-दूसरे की आत्मा को समझ कर चलें, शारीरिक सम्बन्ध को महत्व न देकर आत्मिक पवित्रता का ध्यान रखें । जीवन में सब कुछ करना पड़ता है, किन्तु आसक्त नहीं, अपितु सिर्फ एक कर्तव्य के नाते किया जाय । शरीर व इन्द्रियाओं के बीच में रहकर भी उसके दास नहीं, किन्तु स्वामी बन कर रहें । भोग में भी योग को न भूल जाएँ । महलों में रहकर भी उनके दास बनकर नहीं, किंतु उन्हें अपना दास बनाकर रखें । ऊँचे सिंहासन पर, या ऐश्वर्य के विशाल ढेर पर बैठकर उसके गुलाम न बनें, किंतु उसे अपना गुलाम बनाए रखें, जब धन स्वामी बन जाता है, तभी मनुष्य को भटकाता है । धन और पद को मूर्तिमान शैतान हैं । जब तक ये इन्सान के पैरों में दबे रहते हैं, तब तक तो ठीक हैं यदि ये सर पर सवार हो गए तो इन्सान को भी शैतान बना देते हैं ।
समाज का ऋण
जैन धर्म में भरत जैसे चक्रवर्ती भी रहे, किन्तु वे उस विशाल साम्राज्य के बन्धन में नहीं फँसे । जब तक इच्छा हुई उपभोग किया और जब चाहा तब छोड़कर योग स्वीकार कर लिया । उनका ऐश्वर्य, बल और बुद्धि, समाज राष्ट्र के कल्याण के लिए ही होता था । उन लोगों ने यही विचार दिया कि — जब हम इस जगत में आए तो कुछ लेकर नहीं आए, जन्म के समय तो मक्खी मच्छर को शरीर से दूर हटाने की भी शक्ति नहीं थी । शास्त्रों में उस स्थिति को 'उत्तान - शायी' कहा गया है । जब उसमें करवट बदलने की भी क्षमता नहीं रही, इतना अशक्त और असहाय प्राणी बाद में इतना बड़ा शक्तिशाली बना, इसका आधार भी कुछ है और वह यह है कि अपने शुभ कर्मों का संचय एवं उसके आधार पर प्राप्त होने वाला माता, पिता, परिवार व समाज का प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष सहयोग |
यह निश्चित है कि जिन पुरुषार्थों ने हमें समाज की इतनी ऊँचाइयों
Jain Education International
१४५
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org