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आत्मा और परमात्मा
जब आत्मा यमलार्जुन को तोड़ देता है, तो देवत्व या जिनत्व की ज्योति जागृत हो उठती है ।
प्रत्येक संप्रदाय और पन्थ आज नाम को ही महत्व देकर परस्पर संघर्ष कर रहे हैं । नाम रूप यमलार्जुन तो जड़ है, कृष्ण बनकर उसे तोड़ना ही होगा, तभी देवत्व - भाव जागृत होगा । मेरे विचार में ईश्वर के सर्वव्यापी होने का यही भाव है कि वह नामरूप में छुपे हुए सद्गुण की भाँति सर्वत्र विद्यमान है । उन सद्गुणों के लिए देश - काल, संप्रदाय या जाति का कोई बन्धन नहीं है । यदि आप सद्गुणों का सम्मान नहीं करते तो ईश्वरत्व का अनादर कर रहे हैं । फिर ईश्वर को सर्वव्यापी मानने का अभिप्राय ही क्या हो सकता है ?
दृष्टि बदलो
आप कहेंगे, हमें तो सब जगह ईश्वरत्व दिखाई नहीं देता, बल्कि सर्वत्र काम, क्रोध, अहंकार और ईर्ष्यादि दृष्टिगोचर हो रहे हैं । इसका अर्थ है, आप में देखने की क्षमता तो है किन्तु देखने का तरीका नहीं है । अपने दृष्टिकोण को बदलो, बुराई के स्थान पर अच्छाइयों के दर्शन करो और दुर्गुणों के बीच में से सद्गुण ढूँढ़ने का प्रयत्न करो ।
पश्चिम और पूर्व के दर्शन में यही मौलिक अन्तर है । पाश्चात्य दर्शन के मतानुसार मनुष्य पहले जानवर था, बन्दर था; विकास करते वह आदमी बना है । अभिप्राय यह है कि वह मूल में पशु है और मूल में रहने वाला पशुत्व ही मुख्य है । सभ्यता और संस्कृति ने आज उसे मनुष्य बना दिया है, किन्तु कभी - कभी उसका पशुत्व जाग उठता है, तब मानव क्रोधी और ईर्ष्यालु बनकर अपने मूल स्वरूप - पशुत्व में चला जाता है । इसका तात्पर्य यह हुआ कि मनुष्य मूल रूप में विकारों का पुतला है, पशु है ।
भारत का दृष्टिकोण इससे भिन्न है । वह मानता है मनुष्य मूल में आत्मा अर्थात् परमात्मा है, वह मूल स्वरूप की दृष्टि से ईश्वर है । उसमें जो विकार दृष्टिगोचर हो रहे हैं, वह उसका अपना स्वभाव नहीं है, निजी स्वरूप नहीं है, बाहर से आया हुआ है । जब व्यक्ति विकारों की ओर जाता है, तो अपने स्वरूप से दूर चला जाता है । पुनः जब सँभलता है तो अपने मूल स्वरूप की ओर मुड़ता है । पूर्व और पश्चिम की दृष्टि में यही मूलभेद है । मनुष्य में जब बुराई के दर्शन होते हैं तो पश्चिम कहता है— वह अपने मूल स्वरूप की ओर जा रहा है, उसमें पशुत्व जागृत हो रहा है; और पूर्व कहेगा, वह अपने स्वरूप से हट कर
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