Book Title: Paryushan Pravachan
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 193
________________ 10% पर्युषण-प्रवचन हो जाती है । साधना के मार्ग पर अपनी जिन्दगी क्यों बरबाद कर रहे हो ?" दूसरे ने उत्तर दिया – “भाई, मेरे मन में भी कभी-कभी विचार उठता है कि मैं भी चोरी, मक्कारी और अन्याय से पैसा कमा लूँ । पर सोचता हूँ कि कहीं चोरी करते हुए पकड़ा गया तो जेल की हवा खानी पड़ेगी, प्रतिष्ठा से हाथ धोना होगा और पता नहीं कितने कष्ट सहने होंगे ।" हाँ, तो इस व्यक्ति को राज-दण्ड का, सत्ता का, कारागृह का भय है और इसीलिए वह पाप से बचता है । यह भी एक जीवन है, जो बुराई से बचकर चल रहा है, इधर-उधर बिखरे हुए विकारों के काँटों से अपने कदम बचाते हुए चल रहा है, पर उस व्यक्ति में प्राण नहीं हैं, जीवन की ज्योति नहीं है, अलौकिक प्रकाश नहीं है । वह तो केवल दण्ड के भय से दुष्कर्मों की ओर प्रवृत्त नहीं हो रहा है, तो यह पशु-वृत्ति है । उसके पास मानव की मनोभावनाएँ नहीं है, क्योंकि दण्ड से तो पशु हाँके जाते हैं । जब तक सिर पर डण्डा तना हुआ है, तब तक वह चुपचाप सिर झुकाये चलता रहता है, पर जब देखता है कि दण्ड वाला नहीं है तो पशु दौड़ कर इधर-उधर के खेतों में घुस जाता है । हाँ तो दण्ड पशु के लिए है, मनुष्य के लिए नहीं । जो आदमी मानव होकर भी दण्ड के भय से चल रहा है, पाप से बचकर चल रहा है तो वह मनुष्य की आकृति में पशु है, उसका मन पशु-वृत्ति से ऊपर नहीं उठ पाया है । एक अन्य व्यक्ति से जब यह प्रश्न पूछा जाता है - "भाई, तुम चोरी क्यों नहीं करते ? अपनी इस कष्ट पूर्ण स्थिति से मुक्ति पाने के लिए अन्याय का आश्रय क्यों नहीं लेते ?" वह कहता है – “ बात तो ठीक है, कर भी लें, पर समाज का भी तो डर है । किसी को मालूम हो गया तो कोई क्या कहेगा । " इस व्यक्ति पर राजदण्ड शासन नहीं करता, वह तो समाज से डरता है । समाज, परिवार, मित्र-सम्बन्धी जनों का उसकी दृष्टि में मूल्य अवश्य है । कई व्यक्ति ऐसे होते हैं, जिन पर राजदण्ड शासन नहीं करता पर वे समाज की परवाह करते हैं । उनके जीवन में प्रकाश की एक क्षीण-रेखा चमक रही है । Jain Education International १८२ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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