Book Title: Paryushan Pravachan
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 191
________________ पर्युषण-प्रवचन ला * इसकी व्याख्याएँ विभिन्न रूप से की जा सकती हैं, पर मैं समझता हूँ कि शास्त्र तो एक स्रोत है और प्रत्येक व्यक्ति अपनी विचारधारा के अनुसार भिन्न व्याख्या करता है । फिर भी अनासक्ति जीवन का मूल केन्द्र है । जब हमारा मन फल में अटक जाता है तो कर्म का उत्साह, आनन्द का निर्झर सूख जाता है और हम केवल फल की कल्पनाओं में ही खो जाते हैं, तब फल ही मुख्य बन जाता है और कर्म गौण मानस में । फल के प्रति आसक्ति हो तो, वह व्यक्ति झूठ बोल कर धोखा देकर, परिवार और समाज में द्वन्द्व और दुर्भावनाएँ फैलाकर अन्याय से भी फल प्राप्त करना चाहता है । आप भगवान महावीर के समय का इतिहास पढ़ते हैं तो राजा श्रेणिक और अजातशत्रु की कहानी सामने आती है । राजा श्रेणिक सोने के सिंहासन और साम्राज्य सुखों का उपभोग करने के बाद जीवन के मध्यान्ह से भी आगे बढ़ जाता है, वृद्धावस्था में ऐश्वर्य और सत्ता को नहीं छोड़ पाता तो अजातशत्रु का मस्तिष्क संकल्प-विकल्प से भर जाता है । उसके मस्तिष्क से पिता हट जाते हैं और सोने का सिंहासन चमकने लगता है। वह सोचता है कि पिताजी तो वृद्ध हैं और अब कब तक जीवित रहेंगे ? सिंहासन के लोभ ने उसके मानस को विकृत बना दिया । सिंहासन तो प्रजा की रक्षा के लिए है, पर अजातशत्रु के मन में यह भाव नहीं रहा कि वह जनता के सुख-दुःख का साथी बन कर रहे । यह भाव रहता तो वह सिंहासन पर बैठने के लिए लालायित नहीं होता । वह सोचता कि न्यायानुसार पिता के बाद सिंहासन तो मुझे अवश्य मिलेगा । यदि वह जवानी में मिले तब भी ठीक है और कुछ वर्षों बाद मिले तब भी कोई बात नहीं । जब भी मुझे सेवा का अवसर मिलेगा, तभी अपना कर्तव्य शुद्ध रूप से पालन करूँगा । वास्तव में देखा जाये तो यह सोने का सिंहासन नहीं, बल्कि शूली है, काँटों का सिंहासन है । जरा-सी भी भूल हुई कि शूली की नोक और तीक्ष्ण काँटे जीवन को बेध देते हैं, विकास रोक देते हैं । पर अजातशत्रु पर तो लोभ का भूत सवार था और इसीलिए एक दिन पिता को अपने मार्ग में बाधक समझकर वह उन्हें बन्दी बना लेता है और स्वयं सोने के सिंहासन पर बैठ जाता है । विचार करने पर पता चलता है कि यह जीवन की आसक्ति ही तो है । आसक्ति को ही उद्देश्य बनाकर चलने वाला व्यक्ति न्याय और अन्याय की बात नहीं सोचता । अच्छे-बुरे कर्मों की ओर उसका - - १८० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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