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आवश्यकता और तृष्णा
हमें भी मार गया' कहकर आपने उस कल्पवृक्ष को ही भस्म कर दिया है ।
हाँ, तो हमारे जीवन का सही दृष्टिकोण क्या है ? हर जगह जब सौदेबाजी चलती है तो उसे हम लोभ, तृष्णा या आसक्ति कहते हैं । पर जीवन सौदे की वस्तु नहीं है । सौदा, व्यापार की मनोवृत्ति का अपनी जगह भले ही उपयोग हो, किन्तु जीवन के प्रत्येक क्षेत्र और प्रत्येक कर्म में सौदा नहीं किया जा सकता । यह जीवन की वास्तविकता नहीं होगी ।
स्नेह और सद्भावना की छाया जीवन में अमृत का काम देती है, उसे अर्थशास्त्र के दृष्टिकोण से तोलना उपयुक्त नहीं है ।
धार्मिक क्षेत्र में व्यक्ति थोड़ी बहुत साधना करने के बाद अपनी भक्ति को तोलना प्रारम्भ कर देता है कि आज इसका क्या फल होगा मुझे ? इस प्रकार धर्म और भगवान के साथ भी सौदेबाजी होती है । इसीलिए भगवान से प्रार्थना की जाती है कि हे भगवान् ! मुझे यह देना, वह देना । मनुष्य भौतिक सुख को पाने के लिए जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सौदेबाजी की ही मनोवृत्ति रखता है । जिस राष्ट्र, समाज और परिवार में यह मनोवृत्ति आ जाती है, फिर वह राष्ट्र, समाज और परिवार नहीं पनप सकते । धर्म और परम्पराएँ भी इससे विनाश की ओर अग्रसर होती हैं । सौदेबाजी हमारे विकास को रोकती है, हमारे मस्तिष्क में न किसी का प्रेम छलकता है और न किसी के प्रति सद्भावनाएँ ही सुरक्षित रह सकती हैं । मस्तिष्क के कोने-कोने में आसक्ति प्रविष्ट हो जाती है और वह व्यक्ति प्रतिक्षण द्रव्य-संचय की ताक में ही लगा रहता है । इन्हीं कल्पनाओं में उसका जीवन रस भी सूख जाता है, ऊपर उठने की शक्ति नष्ट हो जाती है और वह कर्तव्य के क्षेत्र में शुद्ध भाव से आगे नहीं बढ़ सकता ।
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अनासक्त भावना
भगवान महावीर तथा सभी तत्त्व चिन्तकों ने मानव-मन की कमजोरी विश्लेषण करते हुए बताया है कि जब तक साधक के मन में सकाम भावनाएँ हैं और निष्काम मनोवृत्ति को नहीं अपनाता, शुद्ध कर्त्तव्य को समझ कर आदर्श की ओर प्रवृत्त नहीं होता, तब तक उसका जीवन चमक नहीं सकता । गीता में भी श्रीकृष्ण ने निष्काम भावना के लिए कहा है : "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।”
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