Book Title: Paryushan Pravachan
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 194
________________ आवश्यकता और तृष्णा पहले व्यक्ति की अपेक्षा यह जीवन विकसित तो अवश्य है, मानव अपने लक्ष्य की ओर जा रहा है, वह पशुत्व से ऊपर उठ गया है, फिर भी भय अवश्य है, उसके जीवन में । और जीवन का विकास यहीं समाप्त नहीं हो जाता, वह और भी आगे बढ़ने के लिए है ।। जब तीसरे व्यक्ति से पूछा गया कि कहो, क्या बात है ? ऐसे मरे-मरे से क्यों रहते हो ? क्यों नहीं चोरी, अनीति कर लेते ताकि जीवन ठीक तरह चल सके और भली प्रकार खा-पी सको । उसने कहा-“वाह भाई ! तुमने खूब कही ! मैं ये बुरे कर्म कैसे कर सकता हूँ ? यहाँ तो कोई डर नहीं है, पर परलोक में तो इनका फल भोगना होगा, इन बुरे कर्मों की बदौलत नरक में सड़ना होगा ।" यह जीवन पूर्वापक्षा विकसित कहा जायेगा पर यह सर्वथा विकसित रूप नहीं है । यहाँ परलोक का भय है और यदि उसके मन से स्वर्ग-नरक की भावना निकल जाये तो वह पाप कर सकता है । यही प्रश्न जब चौथे व्यक्ति से पूछा गया तो वह उत्तर देता है-“अन्याय, चोरी, मक्कारी आदि करने के लिए मेरा मन ही प्रेरणा नहीं द्रुता । मैं इन कामों को उचित नहीं समझता ।" । वह व्यक्ति संसार के भय और प्रलोभनों से परे हैं । स्वर्ग का वैभव और नरक का दुःख इस पर अपना प्रभाव नहीं डालता । इस लोक और परलोक का भय नहीं है, उसके मन में । इसीलिए भगवान महावीर ने कहा है "इहलोगे संसप्पओगे, परलोगे संसप्पओगे ।" । इस जीवन की भी आसक्ति छोड़ दो और अगले जीवन की भी आसक्ति त्याग दो । यह मत सोचो कि यहाँ पर कुछ दान करने के बदले परलोक में असीम ऐश्वर्य प्राप्त होगा। इस प्रकार सोचना तो साधना के अमूल्य हीरे को संसार के जड़ भोग-विलासों से बदलने की तैयारी करना है । जीवन निर्माण का यह सही तरीका नहीं है । जीवन-मरण का खेल ___ जीवन के आदर्शों और कर्तव्यों को संसार के प्रलोभनों से तोलना उचित नहीं है । आसक्ति चाहे वर्तमान के लिए हो या भविष्य के लिए, हर स्थिति में वह हानिकारक है । इसीलिए भगवान ने कहा है "न जीविया संसप्पओगे, न मरणासंसप्पओगे ।" - १८३ Jain Educaton International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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