Book Title: Paryushan Pravachan
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 188
________________ आवश्यकता और तृष्णा - में अनेकानेक बाधाएँ उपस्थित होती हैं । इन बांधाओं को दूर करने के लिए वह संघर्ष भी करता है । हाँ, तो साधक अपने जीवन से, प्रयत्न और पुरुषार्थों से संघर्ष करे, अपनी इन्द्रियों से संघर्ष करे, अपने मन से झगड़ता रहे या मन में उद्भूत होने वाले इन्द्रियों के विकारों से संघर्ष करे ? __तो भारतवर्ष के महान विचारकों ने मानव के सम्मुख एक बहुत बड़ा दार्शनिक सत्य रखा है कि मनुष्य, तुझे अपने इस शरीर से नहीं, किन्तु शरीर के विकारों से लड़ना है; तुझे हृदय से, मन से और जीवन से भी नहीं लड़ना है, पर इनके जो विकार हैं, उनसे तुमुल युद्ध करना है । जीवन तो एक पवित्र वस्तु है, ये विकार ही उसे दूषित करते हैं, अतः इन विकारों को ही परास्त करना है । तो हमारी लड़ाई विकारों से है और हमें विकारों को नष्ट करना है । इस दृष्टिकोण से जब हम विचार करते हैं, चिन्तन करते हैं तो पता चलता है कि लोभ एक विकार है, तृष्णा और वासना विकार है, और जब हम अपनी आवश्यकताओं की सीमा को लाँघकर निरन्तर इन्हीं विकारों में रचे-पचे रहते हैं तो हमारे लिए कथमपि उचित नहीं होगा । तृष्णा जीवन की आवश्यकता नहीं है, आवश्यकता की सीमा से हम बहुत आगे बढ़ गये हैं, आवश्यकता की तो एक निश्चित सीमा होती है, पर तृष्णा तो असीम है, अनन्त है । सौदेबाजी धन आवश्यकता-पूर्ति का एक साधन है । उत्पादन के लिए, धनार्जन के लिए योग्य संघर्ष करना और उसके सम्बन्ध में कुछ विचार करना तो गृहस्थ के दृष्टिकोण से ठीक है, किन्तु धन को ही अपना एकमात्र सर्वस्व मानकर, हृदय में अनेकानेक संकल्प और विकल्प लेकर दुनिया भर में चक्कर काटना कहाँ तक न्याय संगत है ? घर के उल्लासपूर्ण वातावरण में भी आपका मन रुपये पैसे में उलझा रहे, वृद्ध माता-पिता की सेवा शुश्रूषा के समय भी आपके मन में रुपयों की चिन्ता बनी रहे और पत्नी के सम्मुख भी आपका ध्यान रुपये में ही केन्द्रीभूत रहे तो समझना चाहिए कि जीवन में विकार आ रहा है । इसी प्रकार जब पुत्र-पुत्रियों की शिक्षा का प्रश्न सामने आये तो वहाँ भी उनके जीवन-निर्माण को धन से तोलना अनुचित है। घर में यदि कोई बीमार है, जब उसकी सेवा - - - - १७७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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