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पर्युषण-प्रवचन
- जब रावण
विकारों में जा रहा है, उसका मूल स्वरूप दुर्गुण में नहीं है, सद्गुण में है । इस प्रकार पश्चिम मूल में पशुत्व देखता और पूर्व देवत्व या ईश्वरत्व के दर्शन करता है । हमारे दर्शन में शुद्धत्व ही मूल है, हम रावण में भी राम के दर्शन करते हैं । रामायण में प्रसंग आता हैसंसार से विदा होने की तैयारी में है, मृत्यु - शय्या पर पड़ा है, तब राम लक्ष्मण को रावण से राजनीति सीखने के लिए भेजते हैं । जो शत्रु है, जिसने पत्नी को चुराया है और जिसको अभी-अभी युद्ध क्षेत्र में आहत किया है, उसमें भी गुण-दर्शन कितनी बड़ी उदारता है ? इसलिए हमारे यहाँ बार-बार कहा गया है :
शत्रोरपि गुणा वाच्या । विषादप्यमृतं ग्राह्यम् ।
अर्थात् शत्रु के भी गुण बताने चाहिए । विष में से भी अमृत ग्रहण करना चाहिए विद्वान को मधुकर के समान बनकर, फूल के नीचे छुपे हुए काँटे और पत्तियों को छोड़कर रस लेना चाहिए और सर्वत्र ईश्वरत्व के दर्शन करने चाहिए ।
भगवान महावीर के समवशरण में गोशालक आता है, जो उनका शिष्य रहा था; यही उनके सामने अपने आपको तीर्थंकर बताता है और उनके ही दो शिष्यों को लेजोलेश्या द्वारा राख बना देता है । इतना ही नहीं, बल्कि स्वयं भगवान को भी दग्ध कर देता है । उस स्थिति में जब उसके लिए चारों ओर क्रोध, घृणा और द्वेष बरस रहे हैं, उसकी निन्दा हो रही है, तब भगवान कहते हैं—तुम इसके वर्तमान एवं बाह्य स्वरूप को ही देख रहे हो, किन्तु इस आत्मा में भी वही शक्ति विद्यमान है, जो मुझमें है । यह भी एक दिन मेरी ही भाँति ईश्वरत्व को जगाएगा । जो ज्योति तुम मुझमें देख रहे हो, वही ज्योति इसमें भी है ।
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ये सब विचार हमारे जीवन को नया दर्शन देते हैं, समाज, परिवार और देश के चिन्तन को दृष्टि देते हैं । जब आप बुराई की ओर देखेंगे, तो आपको सर्वत्र घृणा और विद्वेष की लहरें फैलती हुई दिखाई देंगी और जब आप सद्गुणों की ओर उन्मुख होंगे, तो सर्वत्र प्रेम और सौहार्द्र आपका स्वागत करेगा । जब यह गुणानुराग या गुण-दर्शन की वृत्ति जगेगी, तभी संसार के कंस और जरासन्ध जैसे प्राणियों में कृष्ण के दर्शन होंगे, गोशालक और देवदत्त में भी भगवान महावीर और बुद्ध की आत्मा दिखाई देगी तथा देश के क्षुब्ध वातावरण में भी सौजन्य, शान्ति और आनन्द के अंकुर फूटेंगे ।
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