Book Title: Paryushan Pravachan
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 171
________________ पर्युषण-प्रवचन का विनाश और सद्गुणों का प्रकाश ही तो सम्यग-दर्शन है । जिसने इसे पहचाना, उसने आत्मा और परमात्मा को भी पहचान लिया और सर्वत्र एक अखण्ड ज्योति के दर्शन की क्षमता भी प्राप्त कर ली ।। जब कोई मुझसे पूछता है कि जैनत्व कहाँ है ? मैं कहता हूँ. आप केवल सम्प्रदाय को ही जैनत्व का चिन्ह, जैनत्व का लेबल क्यों मान लेते हैं ? भगवान महावीर ने कहा है—जो विकारों पर विजय प्राप्त करता है, आवरणों को हटा कर ज्ञान की ज्योति जलाता है, अन्तर में प्रसुप्त जिनत्व को जगाता है; वही जैन है । वे जैन पाँच लाख, दस लाख या बीस लाख की संख्या में सीमित नहीं हैं । यदि मुझसे कोई पूछे कि जैन कितने हैं ? तो मैं कहूँगा कि जैन असंख्य हैं । ये मनुष्य रूपधारी जैन तो सिर्फ संख्यात ही हैं, किन्तु वे असंख्य जैन देवयोनि में बैठे हैं. तिर्यञ्च योनि और नरक में बैठे हैं, उनमें भी ज्ञान की ज्योति जल रही है और सम्यग्-दर्शन का प्रकाश फैला हुआ है । जहाँ भी आत्म-ज्योति जल रही है, वहाँ जिनत्व या जैनत्व जगमगा रहा है । संप्रदाय, पन्थ और वेषभूषा को आप जैनत्व का रूप मान बैठे हैं, किन्तु वह तो ऊपर का छिलका है, फेंकने की वस्तु है । सन्तरा खाने वाला व्यक्ति जैसे उसका छिलका और बीज फेंककर सिर्फ रस चूसता है, उसी प्रकार प्रत्येक संप्रदाय में कुछ छिलके और बीज होते हैं, उन्हें फेंककर आन्तरिक तत्व, रस को ग्रहण करना चाहिए । बाह्य नाम छिलके की भांति है और भाव, अन्तर तत्व उसका रस है, हमें तो भाव को ही देखदा है । आपको ४. यदि बाह्य रूप का, नाम का मोह है, जैन, नोन, हिन्दू, मुसलमान, पारसी, क्रिश्चियन आदि का आग्रह है कि अमुक नाम वाला ही जैन हो सकता है तो मैं कहूँगा कि इस आग्रह को मिटा दीजिए. तोड़ दीजिए । उसके बाद जो भाव प्रकट होगा, वही जिनत्व का देवता होगा और जो चैतन्य स्वरूप की ज्योति जगमगाती दिखाई देगी वही जैनत्व होगा । यमलार्जुन को तोड़िए कृष्णचरित में यमलार्जुन का वर्णन आता है । एक बार कृष्ण ने दो अर्जुन वृक्षों को जुड़ा हुआ देखा । कहते हैं, ये दोनों देव थे, जो किसी शाप के कारण वृक्ष बन गए थे । जब कृष्ण ने उस यमलार्जुन को, दोनों वृक्षों को तोड़ा, तो वृक्ष शाप-मुक्त हो गए और पुनः देव बन गए । हम पुराण की भाषा को छोड़ कर यदि चिन्तन की भाषा में कहें, तो यह यमलार्जुन नाम और रूप है, जो बाह्य चिन्ह या प्रतीक मात्र है । १६० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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