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आत्मा और परमात्मा
छाए हुए हैं और दूसरी ओर अखण्ड चैतन्य का सूर्य पूर्ण रूप से प्रकाशित हो रहा है। आत्मा पर छाए हुए बादल ज्यों-ज्यों हटते जाते हैं, त्यों-त्यों वह प्रकाश निखरता है, विकार कम होते हैं और सद्गुण प्रकट होते हैं । जब आत्मा में सद्गुणों का विकास होता है, तब वह परमात्मा तत्व जागृत हो उठता है । सम्पूर्ण विकार हट जाने पर पूर्ण शुद्ध चैतन्य, ईश्वरत्व जग उठता है, चमक उठता है । इस प्रकार आत्मा के क्रमिक विकास की सीढ़ी है-सद्गुणों का विकास । गुण का आदर, ईश्वर का आदर है
जब-जब आत्मा में सद्गुण को चमकते देखो, तब-तब उस सद्गुण का सम्मान करो । सद्गुणों के प्रति सम्मान व्यक्त करना, आदर-भाव रखना ही आत्मा का आदर करना है और जो आत्मा का आदर करता है, वही परमात्मा का, ईश्वर का आदर करता है । हम परमात्मा का ध्यान करते हैं, चिन्तन मनन करते हैं ताकि उन सद्गुणों की जागृति हमारी आत्मा में भी हो और शुद्ध स्वरूप का विकास हो । हम किसी देह को नमस्कार नहीं करते, किन्तु देही से, आत्मा से सम्बद्ध सद्गुणों को नमस्कार करते हैं । सद्गुणों के सम्मान का अर्थ है, ईश्वरत्व और परमात्मभाव का सम्मान । यही दृष्टि हमें परमात्मभाव की ओर ले जाती है । यदि हम संप्रदाय, परम्परा, जाति और पंथ के व्यामोह में फँस कर सद्गुणों का आदर करते हैं, तो वह ईश्वरत्व का अनादर है । इसलिए जहाँ भी सद्गुण दिखाई दे रहे हों, वहाँ परमात्म-स्वरूप की ज्योति के दर्शन करने चाहिए । सद्गुण सर्वव्यापी है
ईश्वर सर्वव्यापी है, यह सिद्धान्त चर्चा का विषय है । एक दृष्टि से तो जैनों ने भी चैतन्य को सर्वव्यापी माना ही है । जहाँ तक मेरा चिन्तन
और मनन है और मैंने अपनी दृष्टि से सोचा है, तो मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि जहाँ-जहाँ आप सद्गुणों को देखते हैं, वहीं ईश्वरत्व को भी देखते हैं । जिस आत्मा में सद्गुणों के दर्शन हुए, उस आत्मा में परमात्म-स्वरूप के भी दर्शन हुए । यहाँ यह नियम नहीं है कि ये सद्गुण ब्राह्मण में ही जगे, शूद्र में नहीं; अमुक में ही जगे और अमुक में नहीं । हम चैतन्य का विकास सब में मानते हैं और सद्गुणों के दर्शन भी सर्वत्र करते हैं । देवता में भी वह ज्योति जगमगा रही है और नरक में भी, पशु-पक्षी में भी उस ज्योति की जगमगाहट दिखाई देती है । विकारों
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