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अध्यात्म-साधना
है, अपने मूल व्यक्तित्व के शुद्ध अहं का दर्शन कराता है, पराश्रयी एवं याचक मनोवृत्ति का मूलोच्छेदन करता है; वहाँ दूसरों के प्रति भी सहिष्णु, उदार एवं समबुद्धि बनाए रखने की प्रेरणा जागृत करता है । समत्व में ही ब्रह्मत्व के दर्शन ___इस विशाल और विराट् विश्व में व्यक्ति, जाति, समाज एवं राष्ट्र में जो द्वन्द्व एवं संघर्ष दृष्टिगोचर हो रहे हैं, इन सबका मूल कारण एक-दूसरे को तुच्छ, हीन एवं नगण्य समझने की मनोवृत्ति है । जब हम दूसरों के व्यक्तित्व को ऊपर से केवल व्यवहार पक्ष से ही देखते हैं तो ऊँच-नीच का वैविध्य दिखाई देता है, अच्छे और बुरे विकल्पों का मायाजाल फैला हुआ प्रतीत होता है । इस स्थिति में पारस्परिक घृणा और वैर-बुद्धि के विषदंश से कैसे बचा जा सकता है ? भगवान महावीर का अध्यात्म-दर्शन ही इस विषमता-मूलक विष-प्रवाह की अमोघ औषधि है । जब हम प्राणिमात्र में शुद्ध चेतना के दर्शन करते हैं, तो सर्वत्र शुद्ध, निर्विकार परब्रह्मभाव का ही साक्षात्कार होता है । जहाँ एकता और समता का निवास है, वहाँ विषमता, घृणा, द्वेष और वैर नहीं पनप सकते । यह भेद और वैषम्य तो औपचारिक है, आत्मा में मूल रूप से उनका कोई अस्तित्व नहीं । जो औपचारिक और आरोपित है, वह शुद्ध सार्वभौम ज्ञान चेतना के शुद्ध परिणमन से दूर किया जा सकता है । जब हम विषमता को मौलिक मानने से इन्कार कर देते हैं, तो विषमता अपने आप मर जाती है । भगवान महावीर का अध्यात्म-दर्शन इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति की शुद्धता और स्वतन्त्रता के मौलिक अधिकार की घोषणा करता है और समस्त चैतन्य जगत में शुद्ध भ्रातृत्व-भाव की, समत्व-भाव की स्थापना करता है ।
। क्या हम इस अध्यात्म-दर्शन की मूल चेतना के प्रति लक्ष्य देंगे ? क्या हम अपने शुद्ध अहं का बोध करते हुए विश्व के चैतन्य-जगत में समत्व की स्थापना के प्रति अग्रसर होंगे ?
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