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अध्यात्म-साधना
परनिमित्त आदि भेद दृष्टिगोचर होते हैं, नानात्व परिलक्षित होता है, परन्तु अभेद दृष्टि में तो अभेद, ज्ञायक स्वरूप, शुद्ध और असंग आत्मा के ही दर्शन होते हैं । आत्मा जितने अंश में स्व को भूलता है, पराश्रय का विकल्प करता है, उतने ही अंश में शुभाशुभ भाव होते हैं; फलतः संसार-भाव होता है । और जितने अंश में आत्म- दृष्टि होती है, स्वाश्रय का लक्ष्य होता है, त्रिकाल में ध्रुव, ज्ञायक भाव में परिणति होती है, उतने ही अंश में निर्विकल्प शुद्ध भाव होते हैं; फलतः मुक्ति-भाव होता है ।
इसी प्रकार पराश्रयी भावना से मुक्त एकाश्रयी भावना ही आत्म-भावना है, और यह आत्म-भावना ही निजत्व में जिनत्व की भावना है । यही जैन - साधना का मूलाधार सम्यग् दर्शन है । यह आत्म - भावना अहंकार से रहित शुद्ध अहं का शुद्ध बोध है । जब तक साधक स्वाश्रयी शुद्ध अंह का निर्मल बोध नहीं करता, तब तक वह मिथ्या दृष्टि है । वह त्रिकाल में भी अपने स्वतन्त्र स्वत्व पर, पूर्ण अखण्ड व्यक्तित्व पर भरोसा कर ही नहीं सकता । वह अपने अभ्युदय एवं निःश्रेयस के लिए सदा सर्वदा दीन, हीन कातर दृष्टि से दूसरों के मूँह की ओर ही ताकता है, गिड़गिड़ाता है और भिखारी बनकर दर-दर भटकता है । वह दूसरों के कृपा कटाक्ष में ही अपना उत्थान एवं उद्धार देखता है । यह पराश्रयी दृष्टि अध्यात्म - क्षेत्र में ही नहीं, सामाजिक एवं राष्ट्रीय क्षेत्र में भी अत्यन्त भयावह है । परमुखापेक्षी समाज और राष्ट्र त्रिकाल में भी दासता से मुक्त नहीं हो सकते । यह मानसिक दासता है, जो अन्य सब प्रकार की दासताओं से भयंकर है और पतन का मूल कारण है ।
स्वावलम्बन ही उन्नति का मूलमन्त्र
है
भगवान महावीर का यह स्वाश्रयी भाव का दर्शन, मानव की सर्वोत्तम मूल शक्ति और आन्तरिक पुरुषार्थ को उबुद्ध करता है एवं अपनी ही दृष्टि में दीन-हीन बने हुए मानव को अपने सर्वोत्तम स्वतन्त्र स्वरूप एवं व्यक्तित्त्व के दर्शन कराता है । भगवान महावीर का सन्देश है- "मानव ! तू अपने आप में विश्व की पूर्ण एवं एक अखण्ड इकाई है ।" तुझे एक अंशमात्र शक्ति के लिए भी किसी के द्वार पर याचक बनकर जाने की आवश्यकता नहीं है तेरा अभ्युदय, अभ्युत्थान या निःश्रेयस किसी की कृपा का फल नहीं है । तेरा वर्तमान और भविष्य तेरे अपने ही हाथों में है । जो स्व है, वही स्वकीय है, अपना मित्र है । जो पर है, वही
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