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पर्युषण-प्रवचन
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परकीय है, वही वस्तुतः पराया है, बेगाना है । मानव ! तू स्वोन्मुख बन, फिर देख, जो तू चाहता है, वह सब कुछ तेरे पास है, तेरे अन्दर है ।
"पुरिसा तुममेव तुमं मित्तं किं बहिया मित्तमिच्छसि ।" भगवान महावीर का यह सन्देश केवल उपदेश ही नहीं है, बल्कि यह उनका स्वानुभूत जीवन-दर्शन है । उन्होंने अपनी अध्यात्म-शक्तियों का सर्वोत्कृष्ट विकास स्वयं अपने पुरूषार्थ के बल पर ही किया था । आवश्यक-चूर्णि में आचार्य जिन दास महत्तर ने भगवान महावीर के जीवन की संक्षिप्त रूप-रेखा प्रदर्शितं करते हुए साधन काल के सन्दर्भ में लिखा है कि देवराज शक्रेन्द्र ने एक बार भगवान के चरणों में प्रार्थना की-“भगवान् ! अब आपका साधना-काल उपसर्ग बहुल है, अतः मैं बारह वर्ष के लिए आपकी सेवा में रहना चाहता हूँ ।" भगवान ने इसके उत्तर में निर्विकार भाव से अपने अध्यात्म-दर्शन का मूलमन्त्र उपस्थित करते हुए कहा-"शक्र ! अतीत में न कभी ऐसा हुआ है, अनागत में न कभी ऐसा होगा, और वर्तमान में न कभी ऐसा हो सकता है कि कोई भी अरिहन्त किसी भी अन्य देवेन्द्र एवं असुरेन्द्र आदि की सहायता से कैवल्य प्राप्त करे । एक मात्र अपने स्वयं के उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पौरुष और पराक्रम के बल पर ही कैवल्य या मुक्ति का लाभ किया जा सकता है ।" __ पराश्रयी भाव का इससे बढ़कर और कौन-सा खण्डन हो सकता है ? व्यवहार-क्षेत्र में एक-दूसरे के सहयोग की कड़ी को तोड़ देना, उक्त स्वाश्रयी दर्शन का लक्ष्य नहीं है । व्यवहार यदि व्यवहार के क्षेत्र में ही रहे तो कोई आपत्ति नहीं, पर जब यही व्यवहार निश्चय के क्षेत्र में आ धमकता है, तो साधक मूल दृष्टि को ही भ्रान्त बना देता है और तब व्यवहार नहीं, व्यवहाराभास हो जाता है । दृष्टि में शुद्ध निश्चय का आलोक जगमगाता रहे और स्वयं के स्वत्व एवं व्यक्तित्व की पूर्णता का बोध ओझल न होने पाए. यही स्वाश्रयी-दर्शन का उद्देश्य है । इसी भाव को स्पष्ट करते हुए अध्यात्म द्रष्टा मनीषी ने कहा है
निश्चय-दृष्टि चित्त धरी जी, पाले जे व्यवहार ।
पुण्यवंत ते पामश जी भव-समुद्र नो पार ।" भगवान महावीर का अध्यात्म-दर्शन जहाँ एक ओर मानव को अपनी दुर्बल भावनाओं पर, स्वयं अपने ही बल पर विजय पाने की प्रेरणा देता
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