Book Title: Paryushan Pravachan
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 165
________________ पर्युषण-प्रवचन शुभ भावरूप परिणमन हैं, तो किसी के अशुभ भावरूप परिणमन हैं । शुभ भाव परिणमन के द्वारा कई जीव निगोद में से मानव-योनि में आते हैं और कई जीव अन्य योनियों में उत्पन्न होते हैं । कई जीव ऐसे भी हैं, जो वहीं निगोद में ही जन्म-मरण की घटमाल में उलझे रहते हैं । इसी प्रकार पुद्गल द्रव्यों का परिणमन भी भिन्न-भिन्न और स्वतन्त्र है । अनन्तानन्त परमाणुओं के एक पिण्ड-दशा को प्राप्त होते हुए और एक साथ रहते हुए भी प्रत्येक परमाणु का अपना-अपना परिणमन है । कोई भी परमाणु अपने स्वतन्त्र अस्तित्व को त्याग कर दूसरे परमाणु के रूप में बदल नहीं सकता, त्रिकाल में भी दूसरे के अस्तित्व को अपना अस्तित्व नहीं बना सकता । आत्म-भावना भगवान महावीर के दर्शन में विश्वजगत् की प्रत्येक आत्मा अपने अनादि-निधन द्रव्यरूप से मूलतः शुद्ध है, निरंजन है, निर्विकार है । जो कुछ भी अशुद्धता है, वह पर्याय है, औपचारिक. है । मूलभूत नहीं है । मूल-दृष्टि से विचार करने पर निगोद से लेकर सिद्धात्माओं तक सब जीव शुद्ध हैं, एक रस हैं, सम हैं, न्यूनाधिक विकल्पों से परे निर्विकल्प हैं, निर्विभेद हैं । इसी भाव को शुद्ध-नय के चिन्तन-क्षितिज पर प्रकाश-रेखा का रूप देते हुए आचार्य नेमिचन्द्र ने कहा है-“सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया ।" सब जीव शुद्ध नय से शुद्ध ही हैं । यह है, बिना किसी भेद-भाव के विश्व चैतन्य के प्रति परब्रह्म-दर्शन का दर्शन । लोक भाषा में कहें, तो यह हर नर में नारायण की दृष्टि है । इसीलिए महावीर के उत्तराधिकारी प्रत्येक साधक को आत्म-भाव की भावना करनी होती है । ठीक ध्यान में रखिए, भावना करनी होती है, कल्पना नहीं । क्या आत्म-भावना करनी होती है ? यही कि मैं एक अखण्ड ज्ञायक चित् चमत्कार चैतन्य मूर्ति हूँ। किसी भी पराश्रय के बिना मैं एकमात्र, अकेला, निर्द्वन्द्व, स्वावलम्बी, पूर्ण ज्ञान स्वभावी और अनादि अनन्त आत्मा हूँ । आत्मा का अर्थ है-सतत् स्व स्वभाव में गतिशील, ज्ञानशील एवं विवेकशील । सर्वदा और सर्वथा, स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव ही मेरा है । इसके सिवाय जो कुछ भी परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव है, वह अंश मात्र भी मेरा नहीं है । मेरा निजी स्वरूप, आत्मा ही मेरे लिए ध्रुव है, आधार है, आलंबन है, शरण है । मैं ही मेरा हूँ और मेरा ही मैं हूँ । बाह्य दृष्टि से देखने पर ही १५४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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