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पर्वो का सन्देश
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कर्म-युग का यह उद्घोष अब भी वैदिक वाङमय में प्रतिध्वनित होता दिखाई पड़ता है :
अयं मे हस्तो भगवान् अयं मे भगवत्तरः ।
कृतं मे दक्षिणे हस्ते/जयो मे सव्ये आहितः । मेरा हाथ ही भगवान है, भगवान से भी बढ़कर है ।
दाएँ हाथ में कर्तव्य है, पुरुषार्थ है तो बाएँ हाथ में विजय है, सफलता है । ___ हाँ, तो पुरुषार्थ जागरण की उस वेला में भगवान ऋषभदेव ने युग को नया मोड़ दिया । मानव जाति को जो धीरे-धीरे अभावग्रस्त हो रही थी । पराधीनता के फंदे में फँसी तड़फने लगी थी, उसे उत्पादन का मंत्र दिया, श्रम और स्वतन्त्रता का मार्ग दिखाया । मानव समाज में फिर से उल्लास और आनन्द बरसने लग गया । सुख चैन की मुरली बजने लगी ।
मनुष्य के जीवन में जब ऐसी सुख की घड़ियाँ आती हैं, तो आनन्द की स्रोतस्विनी बहने लगती है, वह नाचने लगता है । सब के साथ बैठकर आनंद और उत्सव मनाता है और बस वे ही घड़ियाँ वे ही तिथियाँ जीवन में पर्व का रूप लेती हैं और इतिहास की महत्वपूर्ण तिथियाँ बन जाती है । इस प्रकार उस नये युग का नया संदेश जनजीवन में नई चेतना फूंककर उल्लास का त्यौहार बन गया । और वही परम्परा आज भी हमारे जीवन में आनंद उल्लास की घड़ियों को त्यौहार के रूप में प्रकट करके सबको सम्मिलित आनंद का अवसर देती हैं ।
भगवान ऋषभदेव के द्वारा कर्मभूमि की स्थापना के बाद मनुष्य पुरुषार्थ के युग में आया और उसने अपने उत्तरदायित्वों को समझा । परिणाम यह हुआ कि कि सुख समृद्धि और उल्लास के झूले पर झूलने लगा, और जब सुख समृद्धि एवं उल्लास आया तो फिर पूर्व में से निकलने लगे । हर घर, हर परिवार त्यौहार मनाने लगा, और फिर सामाजिक जीवन में पर्यो त्यौहारों की लड़ियाँ बन गईं । समाज और राष्ट्र में त्यौहारों की श्रृंखला बनी । जीवन का क्रम जो अब तक व्यक्तिवादी दृष्टि पर घूम रहा था, अब व्यष्टि से समष्टि की ओर घूमा । व्यक्ति ने सामूहिक रूप धारण किया और एक की खुशी, एक का आनंद, सभी की खुशी और समाज का आनंद बन गया । इस प्रकार सामाजिक भावना की भूमिका पर चले हुए पर्व, सामाजिक चेतना के अग्रदूत सिद्ध हुए । नई स्फूर्ति, नया आनंद और नया जीवन समाज की नसों में दौड़ने लगा ।
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