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पर्यों का सन्देश
है । देव और राक्षस के विभाजन का आधार इसमें एक सामाजिक ऊँचाई पर खड़ा किया गया है जो दूसरों को खिलाता है, वह स्वयं भी भूखा नहीं रहता और दूसरी बात है कि उसका आदर्श देवत्व का आदर्श है, जबकि स्वयं ही पेट भरने, चिन्ता में पड़ने वाला स्वयं भी भूखा ही रहता है और समाज में उसका दानवीय रूप प्रकट होता है । पर्व की सार्थकता
__ हमारे पर्व जीवन के इसी महान उद्देश्य को प्रकट करते हैं । सामाजिक जीवन की आधार भूमि और उसके उज्ज्वल आदर्श हमारे पर्यों व त्यौहारों की परम्परा में छिपे पड़े हैं । भारत के कुछ पर्व इस लोक के साथ परलोक के विश्वास पर भी चलते हैं । उनमें मानव का विराट रूप परिलक्षित होता है । जिस प्रकार इस लोक का हमारा आदर्श है उसी प्रकार परलोक के लिए भी होना चाहिए । वैदिक या अन्य संस्कृतियों में भरने के पश्चात् पिण्ड-दान की प्रक्रिया की जाती है । इसका रूप जो भी कुछ हो, किंतु भावना व आदर्श इसमें भी बड़े ऊँचे हैं । जिस प्रकार अपने सामाजिक सहयोगियों के प्रति अर्पण की भावना रहती है, उसी प्रकार अपने पूर्वजों के प्रति एक श्रद्धा और समर्पण की भावना इसमें सन्नहित है । जैन धर्म व संस्कृति इसके धार्मिक स्वरूप में विश्वास नहीं रखती । उसका कहना है कि तुम पिण्डदान या श्राद्ध करके उन मृतात्माओं तक अपना श्राद्ध नहीं पहुँचा सकते, और न इससे पर्व मनाने की ही सार्थकता होती है कि जीवन के दोनों ओर-छोर पर उल्लास और आनन्द की उछाल आती रहे ।
इस भावना को लेकर कि परलोक के लिए भी हमें जो कुछ सोचना है, करना है, वह इसी लोक में कर लिया जाए, हमारी जैन संस्कृति में अनेक पर्व चलते हैं । पर्युषण-पर्व भी इसी भावना से सम्बद्ध है । इन पर्यों की परम्परा लोकोत्तर पर्व के नाम से चली आती है । इनका आदर्श विराट् होता है । वे लोक-परलोक दोनों को आनन्दित करने वाले होते हैं । उनका संदेश होता है कि तुम सिर्फ इस जीवन के भोग विलास व आनंद में मग्न होकर अपने को भूलों नहीं, तुम्हारी दृष्टि व्यापक होनी चाहिए, आगे के लिए भी जो कुछ करना है, वह भी यहीं कर लो । तुम्हारे दो हाथ हैं, एक हाथ में इहलोक के आनन्द हैं तो दूसरे हाथ में परलोक के आनन्द रहने चाहिए । ऐसा न हो कि यहाँ पर सिर्फ मौज मजा के त्यौहार मनाते यों ही चलें जाओ और आगे फाका-कशी करनी पड़े । अपने पास जो शक्ति है, सामर्थ्य है उसका उपयोग इस ढंग से
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