________________
सुदर्शन का अभय-दर्शन
मुक्ति का राही
उसी समय नगर में यह चर्चा उठी कि भगवान महावीर राजगृह के उद्यान में पधारे हैं । जनता में श्रद्धा और भावना का प्रवाह जरूर प्रबल था, किन्तु इतना साहस कौन करे कि भगवान के दर्शन से पूर्व ही मौत के दर्शन करने पड़ें । मुक्ति की राह पूछने वाले बहुत होते हैं किन्तु मुक्ति का राही कोई विरला ही होता है, सुख और आनन्दमयी मुक्ति की बातें करने वाले मजनूं बहुत मिल जाते हैं, किन्तु जब मुक्ति के लिए प्राणार्पण करने की बात आती है तो चुपके से पीछे हट जाते हैं, इस भाव को चित्रित करते हुए कवि ने कहा है -
___खाते-पीते हरि मिले तो हमको भी कहना ।
शिर के दिए जो मिले तो चुपके ही रहना ॥ मुक्ति की इस कंटीली और कंकरीली राह पर नाजुक चरणों वाला व्यक्ति लड़खड़ा जाता है, इस राह पर वही चल सकता है, जिसके पैरों में लोहा जड़ा होता है, और जिसका साहस सीमेंट की तरह संकटों के पानी से और भी ज्यादा मजबूत होता है ।
राजगृह में भगवान महावीर के भक्तों की कमी नहीं है । और न ही उनके प्रति श्रद्धा की भी कमी थी, किन्तु सवाल तो यह था कि मौत का सामना कौन करे ?
सुदर्शन ने जब यह सुना तो उसकी आत्मा में आनन्द की लहरें उठने लगीं, वह भगवान महावीर के दर्शन को जाने की तैयारी करने लगा, जब उसने माता-पिता के पास आकर अनुमति माँगी तो माता-पिता चौंक उठे—बेटा ! तुम अकेले कहाँ जाओगे ? जानते नहीं हो, नगर के बाहर वह अर्जुन माली मनुष्य के खून का प्यासा बना घूम रहा है, भगवान के निकट जाने से पहले ही वह तुम्हारी हत्या कर डालेगा तो क्या करोगे ?
सुदर्शन ने उन्हें धैर्य बँधाते हुए कहा-पिताजी ! मारना और जिलाना अर्जुन माली के हाथ नहीं है । उसकी आत्मा अभी मनुष्य के प्रति विद्रोही हो रही है, जब तक प्रेम का दर्शन उसे नहीं मिलता , वह शान्त नहीं हो सकता, उसका राक्षस प्रेम के देवता से ही वश में आ सकता है । मैंने भगवान महावीर से प्रेम का दर्शन पाया है। मैं उसे भी उसी प्रेम के देवता के चरणों में ले जाकर बिठाने का प्रयास करूँगा ।
माता-पिता ने उसे फिर समझाया कि देखो—बहुत के विरुद्ध अकेले
-
-
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org