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पर्युषण-प्रवचन
होता है कि स्वयं ईश्वर बन जाना, और ईश्वर बन जाने का अर्थ होता है, समस्त वासनाओं से मुक्ति ।
हमारी साधना का लक्ष्य यही है कि हम धीरे-धीरे मन पर नियन्त्रण करने का अभ्यास करें । इच्छाएँ अनन्त हैं । शास्त्र की भाषा में - इच्छा हु आगास- समा अणंतिया
और वे इच्छाएँ बड़ी शक्तिशाली होती हैं । इच्छाओं की एक ठोकर ही मनुष्य को अनन्त जन्म तक भटका सकती है । अतः इच्छा पर नियन्त्रण करने का मतलब होगा, शुद्ध मनोबल का उदय । जब तक मनोबल जागृत नहीं होगा, तब तक इच्छाएँ कचोटती रहेंगी । “भटकाती रहेंगी । कोई भी सुन्दर वस्तु हमारे सामने आएगी तो मन चंचल हो उठेगा । अच्छा भोजन सामने आया और जीभ लपलपा उठी, तो मन पर नियन्त्रण कहाँ हुआ ? अभी पर्युषण पर्व चल रहा है, तपस्या के प्रवाह में कोई भी देखा देखी नहीं करे । तपस्या अच्छी है, किन्तु उसका उद्देश्य सामने होना चाहिए, खाने का त्याग मुँह से ही नहीं बल्कि मन से खाने की भावना भी निकल जानी चाहिए । हमें कोई शरीर इन्द्रियाँ और इस पिण्ड से लड़ने की जरूरत नहीं है बल्कि इस विचार से आगे बढ़ना है कि हम भूख के गुलाम नहीं है स्वामी हैं इच्छाएँ जो हमेशा सताती रहती है, उन पर इतना नियन्त्रण करना है कि जरूरत पड़ने पर स्वयं भूखे रहकर भी दूसरों को भोजन कराने की क्षमता हमारे में हो । हमारी आत्मा में इतनी बड़ी संकल्प शक्ति हो कि तन के चाहते हुए भी मन के बिना चाहे, तन हिल भी न सके, और मन को जैसा हम मोड़ना चाहें मोड़ सकें । हमारी साधना में ये ही प्रतिक्रियाएँ रखी गई हैं । हम मन पर नियन्त्रण करने का अभ्यास करें । सिर्फ इस भौतिक देह पर ही अवलम्बित न रहें, इस शरीर के मोह पर ही न जिएँ, किन्तु जन्म की सफलता पर ध्यान रखें । यह शरीर तो कितने वर्ष टिकने का है ५०, ६० या १०० वर्षों में समाप्त होने वाला ही है, किन्तु हमारी दृष्टि सिर्फ शरीर पर ही केन्द्रित नहीं है । यदि हम शरीर के घेरे में ही बँधे रहें तो शरीर के गुलाम हो जाएँगे, सत्त्व - हीन और नास्तिक हो जाएँगे । भारतीय विचारों में आस्तिक नास्तिक की बड़ी पेचीदा गुत्थी है । अमुक व्यक्ति अमुक ग्रन्थों और देवी देवताओं में विश्वास रखने वाला है, अतः आस्तिक है, और जो अमुक-अमुक मान्यताओं और पोथियों में विश्वास नहीं रखता वह नास्तिक है । इस
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