Book Title: Paryushan Pravachan
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 139
________________ पर्युषण-प्रवचन - से, श्रद्धा से । उचित हाथों और उचित भावों से दिया जा रहा है । फिर जेठ, देवर, पति आ गए । वह उनको भी जो कुछ है, सेवा में अर्पण किए जा रही है । बच्चे आ गए किलकारी मारते हुए । कुछ खा रहे हैं, कुछ फेंक रहे हैं, उनको मनाना भी है और नियंत्रित भी करना है । अच्छे से अच्छा जो कुछ भी है, वह सब उँढ़ेलती जा रही है अन्नपूर्णा । फिर क्या है ? सन्त भी पहुंच गए और पात्र भी घूमा । बड़ी ही श्रद्धा से, बड़े ही प्रेम से वह वन्दना कर रही है और जो कुछ भी उपलब्ध है, उस बहराने के लिए तैयार है गद्-गद भाव से । दो-दो हजार वर्ष से, लाखों वर्षों से भिक्षु के पात्र में जो कुछ प्राप्त हुआ; भगवान महावीर के १४ हजार साधुओं और ३६ हजार साध्वियों को जो कुछ प्राप्त हुआ, वह इस अन्नपूर्णा के द्वारा ही बहराया गया है । उसमें एक महान् शक्ति नियोजित है। जब सारा मामला साफ हो गया है, सुन्दर-सुन्दर भोजन समाप्त हो जाने के बाद जो रूखा-सूखा बच गया है, तब वह स्वयं भोजन करने बैठती है । पर उसके मस्तिष्क में एक सिकुड़न भी नहीं होती । उसके मन में जरा भी रंज, दुःख, क्रोध या द्वेष नहीं होता कि मैं सवेरे से इस आग में जल रही हूँ और मेरे लिए क्या यही बचा है ? इसका कोई विचार नहीं उसके मन में । प्रसन्न भाव से, आनन्द भाव से अवशिष्ट भोजन को प्राप्त कर, फिर वही चमकता हुआ चेहरा लेकर वह अन्नपूर्णा जूठे बरतन साफ करने में जुट जाती है, शाम के भोजन की तैयारी में जुट जाती है । मैं आपसे पूछू कि इस प्रकार दया, स्नेह और सरलता की मूर्ति के सम्बन्ध में आपके मस्तिष्क में क्या विचार हैं ? जो कि इस भोजन-यज्ञ में सुबह से शाम तक पसीने में तरबतर होकर जुटी रहती है, भोजन का सरस और सुन्दर अंश परिवार के लोगों को समर्पण कर देती है, सद्भावना के साथ और रूखा-सूखा, बचा हुआ स्वयं उपभोग करती है, जो दूसरों को खिला कर फिर स्वयं खाती है । वास्तव में यदि मन आनन्दित है तो रूखा-सूखा शेष भोजन भी अमृत के समान है । परन्तु यदि आपके सामने ऐसा खाना आ जाए, और कभी ऐसा प्रसंग आ जाए तो पता नहीं आप कितने गज ऊँचे उछल कर पड़ेंगे और सम्भव है आप क्या-क्या कहने लगें । आप कहेंगे कि क्या मैं इसी खाने के लिए हूँ ? सुबह से शाम तक मरता-मरता आया, फिर भी मेरे लिए यही खाना है ? एक दिन भी ऐसा प्रसंग आए तो सम्भव है सातवें आसमान पर दिमाग पहुँच जाए । उस अन्नपूर्णा के लिए तो - १२८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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