Book Title: Paryushan Pravachan
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 141
________________ पर्युषण-प्रवचन तो मैं समझता हूँ कि आपने भगवान् महावीर की वाणी को, उस भगवान् महावीर की आत्मा को, जिसके कि आप उपासक हैं, ठीक नहीं समझा है । आप आत्मा की पूजा करते हैं या जड़ शरीर की ? एक तरफ तो कहते हो कि हम चैतन्य उपासक हैं, लेकिन जब तुम्हारे जीवन के सामने, तुम्हारे मार्ग में ये प्रश्न आकर खड़े होते हैं तो आप शरीर की पूजा करने लग जाते हैं । इधर-उधर के प्रश्नों में अटक जाते हैं । उस रूप में आप आत्मा की पूजा करते हैं या शरीर की ? तो आपका वह सिद्धान्त कहाँ लुप्त हो जाता है ? नारी को, उसके रूप रंग को तोलना, उसका अपमान करना है । अगर तोलना है तो उसके प्रेम को तोलो, उसकी दया को तोलो, उसकी क्षमा को तोलो, उसकी धार्मिक वृत्तियों को तोलो, उसके सहज स्नेह को तोलो और तोलो उसकी तितिक्षा को, उसके अन्दर में रही हुई सर्वश्रेष्ठ शक्ति को तोलो । भारतीय नारी की क्षमा, दया, सरलता और वैराग्य, त्याग, तपस्या का पलड़ा सदैव ऊँचा रहेगा, अन्य के मुकाबले में । उन्हीं भारतीय आत्माओं की कथाएँ आपके सामने चल रहीं हैं और आप गद् गद भाव से सुन रहे हैं । तो आप देख रहे हैं कि काली रानी, महाकाली रानी, भारतवर्ष के सम्राट् राजा श्रेणिक की राजरानियाँ थीं । कितना ऐश्वर्य उनके चरणों में लुढ़का होगा । एक दिन संसार का समस्त सुख, आनन्द का सारा सागर और वैभव उनके पास था वह जीवन, जिसे हम कह सकते हैं, अलंकार की भाषा में कि वे मखमल के फर्श पर चलने पर भी पैरों में जलन अनुभव करती थीं और वे राजरानियाँ एक बार फिर उस जीवन को छोड़ कर निकल गईं । वे ऐश्वर्य छोड़ कर सड़कों पर चलने लगीं । हजारों लाखों, और करोड़ों पर शासन करने वाली, साम्राज्य के सुखों का उपभोग करने वाली वे रानियाँ; जब भगवान महावीर की वाणी का उन्हें स्पर्श हुआ, संसार का वह जादूगर जब अपनी अमर बाँसुरी बजाता हुआ राजगृह में आया और उसका समाचार सुना तो संसार के ऐश्वर्य में उलझी हुई, वैभव के पिंजड़े में बन्द रहने वाली वे पक्षिणियाँ बन्धन तोड़ कर निकल गईं । वह वीर पुरुष भारतवर्ष के एक सिरे से दूसरे सिरे तक, इधर से उधर, जंगलों, पहाड़ों, नदियों, नालों और घर-घर में अहिंसा, सत्य, प्रेम, दया, करुणा, त्याग, तपस्या का सन्देश सुनाता रहा और आज भी आप उसके उपदेश को श्रद्धा के साथ सुन रहे हैं । Jain Education International १३० For Private & Personal Use Only 1 www.jainelibrary.org

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